Uttarkashi Tunnel : जिस ‘Rat Hole Mining’ ने जगाई उम्मीद, वो क्या होती है ?

उत्तरकाशी के सिलक्यारा में निर्माणाधीन सुरंग में 12 नवंबर से फँसे 41 श्रमिकों को निकालने के लिए अब ‘रैट होल माइनिंग’ के जानकारों की सेवाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है.

इसमें 12 लोगों की एक टीम है, जो देसी तरीक़े से उस सुरंग तक पहुँचने की कोशिश कर रही है, जहाँ पहुँचने में उच्च तकनीक वाली ‘ऑगर’ मशीन सफल नहीं हो पा रही है.

अब ये काम मानवीय ढंग से हो रहा है.

ठीक उसी तरह, जिस तरह देश के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के ‘ईस्ट जयंतिया हिल्स’ के कसान के इलाक़े में कोयले की खदानों से कोयला निकालने का काम किया जाता रहा है.

वैसे ‘नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल’ यानी एनजीटी ने इस तरह के खनन पर वर्ष 2014 से प्रतिबंध लगा दिया है, क्योंकि इसे बेहद ख़तरनाक माना जाता है.

रैट होल माइनिंग के दौरान हुआ था हादसा

वर्ष 2018 के 13 दिसंबर को कसान के एक कोयला खदान में पानी भरने से 15 मज़दूरों की मौत हो गई थी, जो ‘रैट होल माइनिंग’ के ज़रिए कोयला निकालने का काम कर रहे थे.

इसी तरह झारखंड के धनबाद, हजारीबाग, दुमका, आसनसोल और रानीगंज की बंद पड़ी कोयले की खदानों से भी ‘रैट होल माइनिंग’ के ज़रिए ही अवैध तरीक़े से कोयला निकाला जाता है.

इन इलाक़ों में भी इस तरह के अवैध खनन की वजह से कई बड़े हादसे हुए हैं और होते रहते हैं.

उत्तरकाशी के सिलक्यारा में ‘रैट होल माइनिंग’ की जिस विशेषज्ञ टीम को बुलाया गया है, उसका नेतृत्व आदिल हसन कर रहे हैं, जो दिल्ली की एक निजी कंपनी में काम करते हैं.

घटना स्थल पर मौजूद पत्रकार आसिफ़ अली कहते हैं कि 12 सदस्यों वाले इस दल ने काम शुरू कर दिया है.

आसिफ़ अली बताते हैं कि दल के सदस्य मानवीय पद्धति से सुरंग में घुसने की कोशिश कर रहे हैं. वो अभी तक 6 मीटर तक गड्ढा कर चुके हैं.

वे छेनी और हथौड़ी के ज़रिए पत्थरों को काट-काट कर उसका मलबा तसले के माध्यम से रस्सी से ऊपर पहुँचाते हैं.

ये काम धीमा है, लेकिन इसी तरह से मेघलय और झारखंड की बंद खदानों में अवैध खनन किया जाता है.

कितनी मुश्किल है ये माइनिंग?

मेघालय के शिलॉन्ग स्थित ‘नार्थ ईस्ट हिल यूनिवर्सिटी’ में कार्यरत जाने माने भू-वैज्ञानिक देवेश वालिया ने बीबीसी को बताया कि बेशक ‘रैट होल माइनिंग’ को अवैध क़रार कर दिया गया है, लेकिन जो लोग इस काम को करते हैं उन्हें दुर्गम पहाड़ों को काटकर अंदर जाने का अनुभव है.

उनका कहना था, “ये लोग पहाड़ों को जानते हैं. पहाड़ों में किस तरह चट्टानों की शृंखला होती है, उसे भी जानते हैं. उनकी बनावट को वो भेदना जानते हैं. ये काम आधुनिक मशीन से नहीं हो सकता क्योंकि उसकी अपनी सीमाएँ हैं. ‘ऑगर’ मशीन भी यहाँ सफल नहीं हो पाई, क्योंकि उस तकनीक से पहाड़ों को भेदा नहीं जा सकता है.”

देवेश वालिया कहते हैं कि जो लोग ‘रैट होल माइनिंग’ करते हैं, वो पहले चट्टान की बनावट पर फ़ैसला करते हैं और उसी हिसाब से उसे काटते हैं.

इससे पहले बीबीसी के सहयोगी पत्रकार आसिफ़ अली से बात करते हुए सिलक्यारा सुरंग बनाने वाली संस्था नेशनल हाईवे इंफ्रास्ट्रक्चर डेवेलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएचआईडीसीएल) के प्रबंध निदेशक महमूद अहमद ने कहा था कि सुरंग के अंदर का मलबा भेदकर स्टील के पाइप से निकास सुरंग बनाने का जो काम चल रहा था, उसकी बाधाओं को दूर करके ‘मैनुअल ड्रिलिंग’ का काम किया जा रहा है.

अभी तक इस प्रक्रिया में कोई बाधा नहीं आई है और सुरंग में फँसे मज़दूरों के बचाव का रास्ता बनने लगा है.

प्रतिबंध क्यों लगाया गया?

तो सवाल उठता है कि आख़िर क्या है ‘रैट होल माइनिंग’ और इस पर क्यों प्रतिबंध लगाया गया है?

धनबाद स्थित ‘इंडियन स्कूल ऑफ़ माइंस’ के प्रोफ़ेसर रहे सतीश सिन्हा कहते हैं कि ‘रैट होल माइनिंग’ शब्द का अंग्रेज़ों ने सबसे पहले इस्तेमाल किया था.

वो कहते हैं कि ये बात 1920 के आसपास की है, जब देश में खनन शुरू ही हुआ था.

प्रोफ़ेसर सिन्हा कहते हैं कि उस समय कोयले की खदानों में बिल्कुल वैसे ही खनन हुआ करता था, जैसे चूहे अपना बिल बनाते हैं या ज़मीन में गड्ढा करते हैं.

बीबीसी से बातचीत में प्रोफ़ेसर सिन्हा कहते है, “तब खनन में न तो मशीनों का इस्तेमाल हुआ करता था और ना ही विस्फोटकों का. बस लोग गिनता, हथौड़ी या सरिया लेकर ज़मीन खोदते हुए कोयले तक पहुँचते थे. तब तकनीक इतनी विकसित नहीं हुआ करती थी. इसीलिए इसका नाम ‘रैट होल माइनिंग’ रखा गया है.”

उत्तरकाशी में चल रहे बचाव कार्य पर बात करते हुए वो कहते हैं कि वहाँ बचाव कार्य में बड़ी मशीनों के इस्तेमाल के घातक परिणाम भी हो सकते हैं.

प्रोफ़ेसर सतीश सिन्हा बताते हैं कि हिमालय के पहाड़ ‘सबसे कच्चे’ हैं. उनका कहना है कि पृथ्वी की तुलना में ये पहाड़ बहुत नए हैं, इसलिए इनके पठार और चट्टानें भी कमज़ोर हैं.

उन्होंने कहा, “अगर बड़ी मशीनों से ड्रिलिंग की जाती है तो ऊपर की लेयर नीचे धँसने का ख़तरा बना रहता है. इसलिए मानवीय तरीक़े से मज़दूरों तक पहुँचने का फ़ैसला बहुत अच्छा है. मुझे लगता है कि इससे बेहतर कोई दूसरा रास्ता नहीं हो सकता था.”

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