कतर की राजधानी दोहा में 29 फरवरी को अमेरिका-तालिबान ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए. इस दौरान कतर में भारतीय राजदूत पी कुमारम भी मौजूद रहे. यह पहली बार था कि किसी भारतीय अधिकारी ने तालिबान की मौजूदगी में किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया. हालांकि, इस समझौते पर हस्ताक्षर की प्रक्रिया में अफगानिस्तान सरकार की तरफ से कोई भी प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ. तालिबान-यूएस डील से जहां पाकिस्तान खुश है, वहीं भारत के लिए कई मोर्चों पर चुनौतियां बढ़ गई हैं.
बता दें कि इस समझौते के तहत, अफगानिस्तान में 18 सालों से तैनात अमेरिकी सेना 14 महीनों के भीतर स्वदेश लौट जाएगी. पहले चरण में अमेरिका अगले 135 दिनों में पांच सैन्य बेसों के सैनिकों को वापस बुला लेगा और अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या घटकर 8600 रह जाएगी. बदले में तालिबान सुनिश्चित करेगा कि अमेरिका और उसके सहयोगियों के खिलाफ 9/11 जैसा कोई हमला ना हो.
अमेरिकी सेना के लौटने के बाद अफगानिस्तान में तालिबान ताकतवर हो सकता है जबकि भारत ने हमेशा से ही पाकिस्तान के प्रभाव में पले-बढ़े तालिबान से दूरी बनाकर रखी है. यही नहीं, तालिबान से भारत की कड़वी यादें भी जुड़ी हुई हैं. दिसंबर 1999 में तालिबान ने मसूद अजहर समेत तीन आतंकवादियों को छुड़ाने के लिए इंडियन एयरलाइनर को हाइजैक कर लिया था, उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने विदेश मंत्री जसवंत सिंह को समझौता कराने के लिए भेजा था. 2018 में जब रूस के आयोजन में तालिबान प्रतिनिधि दल के साथ कॉन्फ्रेंस हुई तो भारत ने सिर्फ रिटायर्ड अधिकारियों को ही पर्यवेक्षक के तौर पर भेजा था.
तालिबान-अमेरिका की इस डील पर भारत ने बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया ही दी. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा, हमने देखा है कि अफगानिस्तान में सरकार, लोकतांत्रिक दल, सिविल सोसायटी समेत समूचे राजनीतिक समुदाय ने इस समझौते से आने वाली शांति और स्थिरता की उम्मीदों और मौकों का स्वागत किया है. विदेश मंत्रालय के इस बयान में ना तो शांति समझौते का स्वागत किया गया और ना ही तालिबान का सीधे तौर पर जिक्र किया गया.
रवीश कुमार ने कहा, भारत की हमेशा से अफगानिस्तान में शांति, सुरक्षा और स्थिरता लाने की हर कोशिश का समर्थन करने की नीति रही है. भारत हर उस अवसर का स्वागत करता है जिससे अफगानिस्तान में हिंसा का अंत हो, आतंकवाद खत्म हो और अफगान के नेतृत्व में उन्हीं के नियंत्रण वाली प्रक्रिया के जरिए स्थायी राजनीतिक समझौता हो.
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद भारत की सबसे बड़ी चिंता सुरक्षा और अफगानिस्तान में लोकतांत्रित तरीके से चुनी सरकार की स्थिरता को लेकर है. दूसरी तरफ, अमेरिका-तालिबान के समझौते के बाद पाकिस्तान का इस क्षेत्र में दबदबा बढ़ सकता है. जैसे-जैसे पाकिस्तान के प्रभाव वाले तालिबान की ताकत बढ़ेगी, वैसे-वैसे क्षेत्रीय सुरक्षा को खतरा भी बढ़ सकता है.
कांग्रेस के प्रवक्ता आनंद शर्मा ने भी इसे लेकर चिंता जताई और कहा कि भारत को अपनी सुरक्षा और हितों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए क्योंकि तालिबान आतंकी मसूद अजहर का समर्थन करता रहा है. उन्होंने कहा, हमें उम्मीद है कि प्रधानमंत्री ने भारत के सभी हितों के बारे में चर्चा की होगी. भारत सरकार को अपनी सुरक्षा और हितों को देखना होगा ताकि तालिबान फिर से भारत को किसी तरह का नुकसान ना पहुंचा सके.
शांति प्रक्रिया के बाद अगर तालिबान फिर से ताकतवर होता है तो अफगानिस्तान फिर से आतंकवाद का ठिकाना बन जाएगा. पाकिस्तान भारत के दुश्मन तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कश्मीर में अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए भी कर सकता है. पाकिस्तानी पीएम इमरान खान ने एक बयान में कहा था कि उनकी जमीन पर 20,000-30,000 आतंकवादी मौजूद हैं यानी ये आतंकी भविष्य में भारत के खिलाफ किसी भी प्रॉक्सी युद्ध में तालिबान की अगुवाई वाले अफगानिस्तान में शरण पा सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तान आर्मी अफगानिस्तान में रणनीतिक बढ़त हासिल कर लेगी और वहां भारत का प्रभाव कम हो जाएगा. विश्लेषकों को एक डर ये भी है कि अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से लौटने के बाद वहां अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट अपने पैर जमा सकते हैं.
यूएस-तालिबान के बीच हुए शांति समझौते में अफगानिस्तान की सरकार को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है जिससे भारत अलग-थलग महसूस कर रहा है. भारत ने हमेशा से अफगान सरकार की नीति और अफगान नियंत्रित शांति प्रक्रिया का समर्थन किया है और इसमें पाकिस्तान की भूमिका को खारिज किया है.
पाकिस्तान लंबे वक्त से तालिबान को संरक्षण प्रदान करता रहा है और उसका तालिबान पर अच्छा-खासा प्रभाव है. तालिबान पर अपने इसी प्रभाव का इस्तेमाल वह अमेरिका को कश्मीर व अन्य मुद्दों पर ब्लैकमेलिंग करने में भी करता रहा है.
वैसे तो तालिबान-यूएस डील में तालिबान और अफगानिस्तान सरकार की वार्ता की भी शर्त तय की गई है. हालांकि, इसे लेकर तमाम संशय कायम हैं. तालिबान हमेशा से अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार को मान्यता देने से इनकार करता रहा है. अगर तालिबान अफगानिस्तान की सरकार के साथ वार्ता करता भी है तो इस बात पर भी संदेह है कि वह वर्तमान संविधान और लोकतंत्र का पालन करेगा क्योंकि वह खुद को अमीराती करार देता है और समझौते के दौरान भी शरिया कानून का हवाला देता रहा है.
अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार खुद समस्या में है. भारत और यूरोपीय संघ ने गनी के दोबारा चुने जाने का स्वागत किया था जबकि अमेरिका ने इसे बस ‘नोट’ किया और पाकिस्तान ने सरकार का संज्ञान लेने तक की जहमत नहीं उठाई थी. पाकिस्तान काबुल में तालिबान को ही अफगानिस्तान की केंद्रीय ताकत बनाए रखने की पूरी कोशिश करेगा.
भारत ने अफगानिस्तान में रचनात्मक कार्यों के जरिए अपना योगदान दिया है. अफगानिस्तान की सड़कों, अस्पतालों और स्कूलों के निर्माण में भारत ने 3 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश किया है. यानी आर्थिक तौर पर भी भारत का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है.
अफगानिस्तान की नई परिस्थितियों को देखते हुए कुछ लोग भारत के तालिबान से वार्ता शुरू करने की बात कह रहे हैं हालांकि, सरकार में इसका समर्थन करने वाले बहुत कम हैं. विश्लेषकों का कहना है कि सरकार चाहे तालिबान से अब कितनी भी बात कर ले, पाकिस्तान के मुकाबले भारत की स्वीकार्यता कम ही रहेगी.