स्मृति इरानी की कविताएं, जो सोशल मीडिया पर पोस्ट होते ही हुईं वायरल

अपने बिंदास बोल, राष्ट्रवादी सोच व नारी अधिकारों के लिए समर्पित, जागरूक, दबंग केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी किसी अलहदा परिचय की मुहताज नहीं. छोटे परदे पर उनकी अदाकारी और सियासती मंचों से लेकर संसद भवन में गूंजती उनकी आवाज से समूचा देश वाकिफ है, पर इनदिनों देशवासी उनकी नई प्रतिभा से रूबरू हो रहे.. . और वह है काव्य जगत में उनकी एंट्री. 

यह सभी को पता है कि स्मृति सोशल मीडिया की भी चर्चित शख्सियत हैं. चाहे ट्वीटर हो, फेसबुक या इंस्टाग्राम, उनकी हर पोस्ट पर हजारों लाइक्स आते हैं. शायद इसीलिए उन्होंने साहित्य के अपने हुनर के लिए भी इसी मंच को चुना

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इसी 6 जुलाई को 11 बजकर 51 मिनट अपर उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में एक कविता यह कहते हुए शेयर की कि-
कौन कहता है फ़्लाइट पर लिखना लाज़मी नहीं। अभी अभी ताज़ा ताज़ा मेरी क़लम से … 

मुद्दतों से है तलाश उसकी, लोग कहते जिसे इश्क़ है, 
साया सहला के गया कुछ पल उसका, एहसासों की गिरफ़्त में आज भी दिल है। 

लोग कहते हैं हर किसी को मिल जाए सुकून ये मुमकिन नहीं, 
हमसे पूछो इश्क़ सुकून दे ये सोच ही नादान है। 

ख़ुश फहमी देता है इश्क़ की हर मोड़ पर मिलेगा हमसफ़र तुम्हें चाहते हुए, 
ये नहीं बताता कमज़र्फ की वो मोड़ जिस पे हमसफ़र हो मेरे रास्तों में आता नहीं। 

आँसू है साथी उसके, दिल का टूट जाना सबूत, 
कमबख़्त ये नहीं बताता कि जिसपे दिल आया उसे ख़ुद नागवार इश्क़ है । 

लोग कहते हैं इश्क़ जुनून है, दिल का लगना लगाना मजबूरी, 
शायद इसलिए मुझ में और इश्क़ में रह गई इक दूरी। 


इस कविता को 7200 से अधिक लोगों ने लाइक किया, 699 ने अपनी प्रतिक्रिया दी और 187 ने शेयर किया. इससे उत्साहित स्मृति ने अपनी लिखी एक दूसरी कविता 14 जुलाई को रात 10.35 पर यह लिखते हुए पोस्ट की, ‘लिखा कल था पोस्ट आज कर रही हूँ – ‘काम कर’ वाले कमेंट ना करें-

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              पूछा मैंने समझने को फ़ितरत उसकी, किस भगवान पे है एतबार,
                      हाज़िर जवाब बोला, वही, जो करे काम इल्तज़ा पे हर बार.

                               मैंने कहा डर नहीं लगता कहते हुए,
                       ज़रूरतों को प्रार्थनाओं के तराज़ू में तोलते हुए;
                                     पलट कर मुस्कुराते हुए बोला,
                  डर कैसा जब दुनिया ही बाज़ार बन के रह गयी उम्मीदों की-

                       उम्मीद हर दिन की ज़िंदगी जी सके वो उसूलों के दम पे,
                         अफ़सोस ये के हर शाम उन उसूलों की बलि लेती.
                 उम्मीद ये की कोई हो जो सिर्फ सिरत को देखे-समझे, प्यार करे,
                     अफ़सोस जब सूरत की चौखट न पार कर सके एहसास.
             उम्मीद ये की जिस रोटी की तलाश में निकला वो दिन के उजाले में मिलेगी ज़रूर,
                अफ़सोस तब जब उसे रात के अंधेरे, भूख के आंसूओं में तबदील करे.

                      मैं चुप थी क्यूंकि लफ़्ज उसके किसी खंजर से कम न थे,
     बोला वो ढूंढ ले तू भी कोई भगवान ऐसा, जो तेरी उम्मीदों को सुनने की कम से कम कीमत न लें.  


इस कविता को अब तक 3600 से अधिक लोग लाइक कर चुके हैं. 473 ने अपनी प्रतिक्रिया दी है और 109 शेयर हो चुके हैं.

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