चीन के बच्चों में फैली बीमारी क्या है और इससे भारत को कितना ख़तरा

चार साल पहले चीन से शुरू हुए कोविड संक्रमण के मामले धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गए थे और लाखों लोग इसकी चपेट में आए थे.

अब चीन के उत्तरी इलाक़े से बच्चों में निमोनिया की ख़बरें चिंता का विषय बन गई हैं.

कई रिपोर्टों में ये भी दावा किया जा रहा है कि चीन के उत्तरी इलाके के अस्पतालों में बड़ी संख्या में बीमार बच्चे इलाज के लिए आए हैं.

चीन में कोविड को लेकर हटाए गए प्रतिबंध और सर्दी के मौसम को भी साँस की इस बीमारी को जोड़ कर देखा जा रहा है.

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के हवाले से विश्व स्वास्थ्य संगठन की अधिकारी ने कहा है कि चीन में साँस की बीमारी के जो मामले आ रहे हैं, वो कोविड जितने नहीं हैं और इस बात को दोहराया कि हाल के मामलों में कोई नया या असामान्य पैथोजेन नहीं मिला है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्यवाहक निदेशक मारिया वेन ने कहा कि चीन के बच्चों में ये मामले बढ़ने की वजह कोविड को लेकर लगा दो साल का प्रतिबंध मालूम होता है, जिसने इस पैथोजन से बच्चों को दूर रखा.

उनका कहना था, ”हमने महामारी से पहले की तुलना करने को कहा है और जो लहर अभी दिखाई दे रही है उसकी पीक उतनी नहीं है, जो साल 2018-19 में दिखी थी.”

चीन के राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग के प्रवक्ता मी फेंग ने रविवार को कहा कि साँस की बीमारी में बढ़ोत्तरी का कारण कई प्रकार के पैथोजन का मौजूद होना है, जिनमें मुख्यत: इनफ़्लूएंज़ा है.

चीन भारत का पड़ोसी देश है. ऐसे में इस बीमारी से बचाव के लिए भारत सरकार ने भी स्थिति की समीक्षा की है.

भारत सरकार किस तरह से स्थिति से निपटने के लिए तैयार है?

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने हाल ही में साँस संबंधी बीमारियों से निपटने के लिए तैयारियों और उपायों को लेकर विस्तृत समीक्षा बैठक की.

प्रेस सूचना ब्यूरो की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक़ स्वास्थ्य सचिव ने सभी राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को पत्र लिखा है और जन स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों को इस संबंध में तैयारी करने और समीक्षा करने की सलाह दी है.

इस पत्र में कहा गया है कि अस्पताल में फ़्लू के लिए दवाएँ और टीके, मेडिकल ऑक्सीजन, एंटीबायोटिक दवाओं, व्यक्तिगत सुरक्षा के उपकरणों, टेस्टिंग किट, ऑक्सीजन प्लांट और वेंटिलेटर की पर्याप्त उपलब्धता और अन्य ज़रूरी उपाय होने चाहिए.

वहीं सभी राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों को ‘कोविड-19 में संशोधित निगरानी रणनीति’ के लिए दिशानिर्देश भी लागू करने की सलाह दी गई है.

इस साल की शुरूआत में इसे जारी किया गया था.

इसमें इंफ़्लूएन्ज़ा जैसी बीमारी (आईएलआई) और गहरी साँस संबंधी बीमारी (सारी) पर निगरानी रखने की सलाह दी गई है.

दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में प्लमनरी एंड क्रिटिकल केयर और स्लीप मेडिसिन के प्रमुख डॉ. अनंत मोहन कहते हैं कि डब्लूएचओ को जो जानकारी चीन से मिली है, उससे यही समझा जा सकता है कि जो सामान्य कीटाणु खाँसी और जुक़ाम करते आए हैं, वो वहीं हैं.

वे कहते है, ”ऐसे मामलों की तादात बढ़ रही है और इसका एक प्रमुख कारण टेस्टिंग ज़्यादा होना हो सकता है, लेकिन ये कोई नया कीटाणु नहीं है.”

चीन के बच्चों में फ़ैली बीमारी संक्रामक है?

डॉक्टरों के अनुसार ये कम्यूनिकेबल या संक्रामक बीमारी है.

आसान भाषा में समझें, तो साँस लेने से संबंधित बीमारियाँ संक्रामक होती है.

इस बीमारी के वायरस या बैक्टीरिया ड्रॉपलेट खाँसने, हँसने, छींकने, बोलने और गाना गाने आदि से फैलते हैं.

डॉ. वेद प्रकाश लखनऊ में किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में प्लमनरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसिन के प्रमुख हैं.

वे कहते हैं कि कोविड के दौरान लगे प्रतिबंध हटने के बाद चीन में ये पहली सर्दी है, ऐसे में वहाँ लोगों में प्रतिरोधक क्षमता कम होगी.

साथ ही उनका कहना है कि चीन में कोई नया वायरस, बैक्टीरिया का पैथोजन नहीं पाया गया है.

माइकोप्लाज़्मा, आएसवी क्या हैं?

डॉक्टरों का कहना है कि वायरस और बैक्टीरिया ये सब ऐसे सुक्ष्म पेथोजन या रोगजनक होते हैं जिससे इस तरह की बीमारी फ़ैलती है.

डॉ वेद प्रकाश समझाते हुए बताते हैं कि माइकोप्लाज़्मा एक बैक्टीरिया कीटाणु है और ये ज़्यादातर बच्चों को हमला करता है.

ये गले और सांस लेने के तंत्र को प्रभावित करता है जिससे निमोनिया हो सकता है.

वहीं आरएसवी एक तरह का वायरस है जिसे अंग्रेज़ी में रेस्पिरेटरी सिंकायइटिल वायरस कहा जाता है.

डॉ अनंत मोहन के मुताबिक ये वायरस अपर रेस्पिरेटरी, नाक और गले को प्रभावित करता है और जुकाम, ख़ासी और बुख़ार का कारण बनता है.

माइकोप्लाज़्मा, आएसवी या इन्फूलेंन्ज़ा ये बहुत आम हैं और बहुत गंभीर न हो तो एंटीबॉयोटिक के ज़रिए ठीक किया जा सकता है.

इसके लक्षण क्या – क्या हैं?

डॉक्टर इसके कई लक्षण बताते हैं जो आम से दिख सकते हैं.

डॉक्टरों के अनुसार ये कई बार अपने आप भी ठीक हो जाता है. इसके लिए कई बार एलर्जी की भी दवाएं दी जाती है लेकिन जब निमोनिया बनने लगता है तो एंटीबॉयोटिक दवाएं दी जाती हैं.

क्या इस बीमारी को कोविड के बाद शरीर पर होने वाले प्रभावों से जोड़ कर देखा जा सकता है?

डॉ अनंत मोहन कहते हैं कि कोविड को चीन में फै़ले इन्फ़लूएंज़ा से जोड़कर देखा जाना मुश्किल है.

उनके अनुसार, ”ये हो सकता है कि जिनको कोरोना नहीं हुआ , उनमें एंटीबॉडी न बनी हों. ये एक थियोरी हो सकती है लेकिन ये कोई ज़रूरी नहीं है कि कोरोना की एंटीबॉडी इन्फ़्लूएंज़ा दूसरे वायरस से सुरक्षा दे.”

वहीं अब इन्फ़्लूएंज़ा को लेकर भी वैक्सीन उपलब्ध हैं और उसे लेकर दिशानिर्देश भी है, तो वो भी लिया जा सकता है.

लेकिन डॉ अनंत इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि वैक्सीन को फूलफ्रुफ़ नहीं माना जाना चाहिए और बचाव हमेशा करना चाहिए.

वहीं डॉ वेद प्रकाश दूसरी बात कहते हैं.

उनके अनुसार , ”जिन बच्चों या लोगों को वैक्सीनेशन नहीं लगे हैं और उन्हें कोविड भी नहीं हुआ है. वहीं जिनका मौसम बदलने पर एक्पोज़र नहीं हुआ हो , बैक्टीरिया , वायरस या इन्फ़्लूएंज़ा नहीं हुआ है तो उनमें प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती है.ऐसी स्थिति में कम असर वाले बैक्टीरिया या वायरस का प्रभाव ऐसे लोगों पर ज़्यादा होता है.”

वे बताते है कि छोटे बच्चों के लिए वैक्सीन का उपयोग नहीं हुआ है इसलिए उनके लिए ज़्यादा ख़तरा है. वैसे ही वो व्यस्क भी इस सूची में शामिल हैं जिन्हें न वैक्सीन लगा हो या कोविड भी न हुआ हो.

वहीं गर्भवती महिलाओं और वो लोग जिन्हें उच्च-रक्तचाप, डायबीटिज़ आदि जैसी बीमारी हैं है उनमें इस तरह के संक्रमण से प्रभावित होने की अशंका बढ़ जाती है..

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