कर्नल स्लीमन ने किया था ठगी प्रथा का अंत, जबलपुर के समीप आज भी मौजूद हैं अतीत की यादें
17वीं और 18वीं सदी के दौरान बुंदेलखंड से विदर्भ और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में ठगों का आतंक था।
लूट और ठगी ही था व्यवसाय
इतिहासविद अरुण शुक्ल की मानें तो एक जमाने में कटनी के स्लीमनाबाद व आसपास के कुछ क्षेत्रों में एक वर्ग के लिए ठगी परम्परागत व्यवसाय था। इस वर्ग के लोग राहगीरों को ठगकर या फिर लूटकर ही अपना परिवार चलाते थे। इसके अलावा और भी कई क्षेत्र थे जहां लूट के डर से शाम ढलने के बाद निकलना लोग जान से खिलवाड़ जैसा मानते थे। लूट और ठगी में किशोर और बच्चे तक शामिल रहते थे।
आज भी मौजूद हैं निशान
ठगी पृथा का अंत के पीछे एक अहम पहल भी छिपी है, जिसके कारण ठगी पृथा को समूल नष्ट किया जा सका। इतिहासकारों के अनुसार ठगों के खात्मे के बाद उनके बच्चों को जीवन यापन करने अन्य व्यवसाय सिखाना आवश्यक था। जिसके लिए जबलपुर में रिफॉर्मेट्री स्कूल खोला गया था। वर्तमान में यहां पर पॉलीटेक्निक कॉलेज स्थित है। इस स्कूल में ठगों के बच्चों को तरह-तरह के व्यवसाय सिखाए गए थे। जिसमें दरी बनाना प्रमुख था। जहां ये काम करते थे वह स्थान आज भी दरीखााना के नाम से प्रसिद्ध है।
कर्नल स्लीमैन और स्लीमनाबाद
इतिहासकार राजकुमार गुप्ता के अनुसार सन 1809 मे इंग्लैंड से भारत आए कैप्टन विलियम स्लीमैन को ईस्ट इंडिया कंपनी ने गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी। स्लीमैन को पता चला कि 200 सदस्यों का एक ऐसा गिरोह है जो लूटपाट के लिये हत्या करता था। जिसका मुखिया था बेरहाम ठग। जो हाईवे और जंगलों पर अपने साथियों के साथ घोड़ों पर घूमता था। ठगों के खिलाफ विलियम स्लीमैन इंचार्ज बना दिया, और मुख्यालय जबलपुर में बनाया गया। करीब 10 साल की कड़ी मशक्कत के बाद बेरहाम पकड़ा गया और तब सारी चीजों का खुलासा हुआ। जबलपुर से करीब 75 किमी दूर कटनी जिले के कस्बे स्लीमनाबाद को कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के नाम से ही बसाया गया है। गौरतलब है कि कर्नल स्लीमैन ने ही 1400 ठगों का फांसी दी थी और उनकी सहायता करने वाले कई ठगों को समाज की मुख्यधारा में जोड़कर उनका पुनर्वास भी कराया था।
गुरंदी बाजार से रिश्ता
ठगी प्रथा के खात्मे के बाद बचे हुए ठग गुरंदे कहलाए। जिंदा बचे ठगों और उनके बच्चों व परिवार का वर्तमान गुरंदी बाजार में पुनर्वास किया गया। इसलिए इसे गुरंदी बाजार कहा जाने लगा। गुरंदी में हर वह चीज मिला करती थी, जिसका मिलना उस दौरान किसी और जगह मिलना नामुमकिन होता था।
फैक्ट्स ऑफ ठग
– ठगों की भाषा रामासी थी। जो गुप्त और सांकेतिक थी।
– ठगों का मूल औजार तपौनी का गुड़, रूमाल और कुदाली प्रमुख होता था।
– ठग अपने शिकार को बनिज कहते थे, जिनका रूमाल से गला घोंट दिया जाता था।
– मूलत: ठग काली के उपासक थे, जिसमें मुस्लिम ठग भी शामिल थे।
– 1839 में फिलिप मीडोज टेलर की बुक कन्फेशंस ऑफ ए ठग से ठगी प्रथा का पता चला।
– ठग बेहराम ने 931 और आमिर अली ने 700 से ज्यादा हत्याएं की थी
विलियम हेनरी स्लीमैन का नाम भारतीय इतिहास में इसलिए भी आदर से लिया जाता है कि उन्होंने मध्य भारत की क्रूरतम ठगी प्रथा का साहसपूर्वक अन्त कर दिया।
कर्नल स्लीमैन के संस्मरणों का उम्दा अनुवाद राजेन्द्र चन्द्रकान्त राय ने किया है जिसे इलाहाबाद के साहित्य भण्डार से ‘स्लीमैन के संस्मरण’ नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। इस संस्मरण का पहला भाग हाल ही में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है। इसी पुस्तक का एक हिस्सा हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें स्लीमैन के जीवन पर प्रकाश डाला गया है।
सर विलियम हेनरी स्लीमेन परिचय
स्लीमेन एक प्राचीन कार्निश परिवार है। इस परिवार की जागीरें अनेक पीढ़ियों से कार्नवाल प्रदेश के सेंट जूडी के पूलपार्क नामक स्थान पर थीं। इसी इलाके के कैप्टेन फिलिप स्लीमेन और उनकी पत्नी मैरी स्प्री इसी प्रतिष्ठित परिवार से संबंधित थे। विलियम हेनरी का जन्म इन्हीं के घर पर सन् 1788 की 8 अगस्त को हुआ।
इक्कीस वर्ष की आयु में सन् 1809 में विलियम हेनरी स्लीमेन को लॉर्ड दे डस्टनविले के कार्यालय द्वारा बंगाल आर्मी कैडैट के रूप में नामांकित कर दिया गया। इसी साल 24मार्च को वे डेवोन्शायर जहाज के द्वारा यात्रा करते हुए साल के आखिर में भारत पहुँचे। वे20 सितंबर को पटना के करीब दीनापुर केंट एरिया में पहुंचे और ठीक क्रिसमस के दिन उन्होंने कैडैट के रूप में अपने फौजी जीवन की शुरूआत की। तुरंत ही उन्होंने अरबी और फारसी भाषा सीखना तथा भारतीय धर्मों और रीतिरिवाजों का अध्ययन करना शुरू कर दिया था। वे 16 सितंबर 1814 को लेफ्टिनेंट पद पर पदोन्नत कर दिये गये।
लेफ्टिनेंट विलियम स्लीमेन ने 1814 से 1816तक चले नेपाल युद्ध में शिरकत की। इसी दौरान एक भीषण महामारी की चपेट में आने से वे बाल-बाल बचे। परंतु उनकी पूरी रेजीमेंट इस महामारी की भेंट चढ़ गयी। लगभग 300लोग मौत के गाल में समा गये थे और सात सौ लोगों को छुट्टी देकर घर भेज दिया गया था। दस अंग्रेज सफसर जो स्लीमेन के साथ थे उनमें से सात बीमारी की चपेट में आ गये थे और उनमें से पांच की मौत हो गयी थी। सभी सन्निपात की स्थिति में पहुँच गये थे और आंय-बांय बकने लगे थे। स्लीमेन उन दो अफसरों में से एक थे, जो मरने से बच गये थे, पर वे भी सन्निपात से नहीं बच सके थे।
युद्धकाल में स्लीमेन ने जो सेवाएं दी थीं, उनको देखते हुए सन् 1816 में उन्हें पुरस्कार के लिये चुना गया। युद्ध समाप्त होने पर उनके रेजीमेंट को इलाहाबाद भेज दिया गया। साथ-साथ उन्हें पड़ोसी जिले पिथौरागढ़ को भी देखना था। यहीं रहते हुए उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किये उनके आधार पर ही बाद में उन्होंने अवध-मामलों से संबंधित अपनी किताब ‘जर्नी थ्रू अवध’ लिखी।
सन् 1820 में वे सिविल-सेवा के लिये चुने गये और गर्वनर-जनरल के एजेंट के जूनियर सहायक के तौर पर सागर-नर्मदा टेरिटरी में पदस्थ हुए। यह टेरिटरी दो वर्ष पूर्व ही मराठों से लेकर अंग्रेजी हुकूमत में जोड़ी गयी थी और अब मध्य प्रांत के चीफ कमिश्नर के अन्तर्गत आ गयी थी। यह ऐसा विजय प्राप्त राज्य था जहां कभी खजाने के लाभ के लिये विधवाओं को नीलामी के द्वारा बेच दिया गया था। यहाँ यह अजीब रिवाज अब भी प्रबलता से जारी था। इसी कारण यहां पर एक सक्षम और उत्साही अधिकारी की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। एक साधारण प्रशिक्षण के बाद सन् 1822 में दो वर्ष से अधिक अवधि के लिये नरसिंहपुर जिले में पदस्थ किये गये। यह उनके जीवन का सबसे श्रमसाध्य कार्यों वाला समय साबित हुआ।
स्लीमेन जिस नरसिंहपुर जिले के चार्ज पर थे,असल में वही नरसिंहपुर ठगों का सबसे प्रिय अरामगाह बना हुआ था। सन् 1830 में उन्होंने पाया कि उनके कार्यालय से सिर्फ 400 गज की दूरी पर कंदेली गाँव ठगों का असली अड्डा है। और सिर्फ एक पड़ाव दूर सागर रोड के मंडेसर में ही भारत की वह सबसे बड़ी ‘बिल’ थी, जहाँ ठगों द्वारा मार डाले गये लोगों को दफनाया गया था। स्लीमेन ने जब फिरंगिया नामक सबसे खुंखार ठग को गिरफ्तार करने मे सफलता पायी, तभी उन्हें उन रहस्यों की जानकारी हुई, जिसके कारण बाद में भारत से ठगी जैसे जघन्य और संगठित अपराध का सफाया हो सका। सन् 1831 की स्लीमेन की रिपोर्ट ने ही बड़े अफसरों को पहली बार इस हकीकत से दो-चार कराया कि देश का बड़ा हिस्सा हत्यारों के क्रूर गिरोहों की चपेट में है। तब शैतानों को भी मात करने वाले इन ठगों का सफाया करने के लिये व्यवसिथत-उपाय करने की ओर अंग्रेज सरकार का ध्यान गया। ठगों का उन्मूलन करने वाला स्लीमेन तब स्वयं ही‘ठग स्लीमेन’ के नाम से विख्यात हो गये और उन्होंने उसे अपने जीवन का मुख्य कार्य ही बना लिया, कि वह इस रहस्यमय और गुप्त गिरोह का विनाश करके ही रहेंगे।
स्लीमेन जब नरसिंहपुर में ही थे, तभी 24अप्रेल 1824 को उन्हें उनके कामों के कारण कैप्टन का ओहदे से नवाजा गया। सन् 1828की मार्च में कैप्टन विलियम हेनरी स्लीमेन ने जबलपुर का सिविल एवं कार्यकारी का प्रभार सम्हाला। जबलपुर में ही एमेली जोजेफीन से21 जून 1829 को शादी की, जो कि काऊँट ब्लॉन्डिन डे फॉन्टेन की बेटी थी। उसके पिता फ्रांस की क्रांति के समय अपनी जायदाद गंवा कर मारीशस चले आये थे।
जबलपुर में स्लीमेन का शानदार घर था, जहाँ बड़ी-बड़ी दीवारों से घिरा हुआ एक पार्क था और उसमें चितकबरे चीतल घूमा करते थे। बाद में जब रेल-पथ का जबलपुर में आगमन हुआ तो वह घर और बगीचा दोनों ही उजाड़ दिये गये।
सन् 1832 में सी. इरेजर छुट्टियों से वापस लौट आये और उन्होंने सागर जिले का राजस्व तथा सिविल विभाग का चार्ज वापस ले लिया और मजिस्ट्रेट के कार्यों को स्लीमेन के लिये छोड़ दिया। स्लीमेन 1835 तक इस पद पर कार्य करते रहे। 10 जनवरी 1835 को सरकार ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके आधार पर स्लीमेन को निर्देशित किया गया कि वे अपना मुख्यालय जबलपुर में स्थापित करें। उन्हें हत्यारों ठगों के उन्मूलन के लिये जनरल सुपरीन्टेंडेंट भी बनाया गया तथा शेष अन्य कार्यों तथा प्रभारों से मुक्त कर दिया गया।1835 मे स्लीमेन दोबारा गंभीर रूप से बीमार पड़ गये और उन्हें अपनी पत्नी तथा छोटे बच्चे के साथ छुट्टी पर भेज दिया गया, ताकि के स्वास्थ लाभ कर सकें।
स्लीमेन जबलपुर, दमोह और सागर जिलों में पड़ाव करते हुए ओरछा, दतिया, ग्वालियर होते हुए पहली जनवरी 1836 को आगरा पहुँचे। आगरा में थोड़ा समय रूककर वे भरतपुर के रास्ते दिल्ली और मेरठ निकल गये। फिर वहाँ से शिमला चले गये। जबलपुर से मेरठ जाते हुए ही उन्होंने अपनी किताब ‘रैम्बल्स् एंड रिकलेक्शन्स् ऑफ एन इंडियन ऑफिशियल’ के आधार पर जर्नल तैयार किये। इस काम की पांडुलिपि 1839 में जा कर पूरी हो पायी किंतु उन्होंने 1944 तक इसे दुनिया के सामने आने नहीं दिया।
1 फरवरी 1837 को उन्होंने अपनी सेवाओं के28 वर्ष पूरे किये और स्लीमेन को राजपत्रित मेजर का ओहदा दिया गया। इसी साल उन्होंने हिमालय के अंदरूनी हिस्से की यात्राएं कीं और इनका विस्तृत विवरण उन्होंने एक अप्रकाशित जरनल के रूप में तैयार किया। बाद में वे अपने बच्चे को देखने के लिये कलकत्ता चले गये।
फरवरी 1839 में उन्होंने ठगी और डकैती के उन्मूलन के कमिश्नर का प्रभार समहाला। सिंधिया द्वारा खड़ी की गयी मुसीबतों से निपटने के लिये स्लीमेन को 29 दिसंबर 1843को महाराजपुर की लड़ाई लड़नी पड़ी। इस समय तक वे लेफ्टिनेंट-कर्नल हो चुके थे और ग्वालियर के रेजिडेंट थे। जब युद्ध शुरू हुआ, वे एक तरह से सिंधिया के ही केम्प में थे। सन्1848 में लखनऊ रेजीडेंसी मे फिर से जगह खाली हो जाने के कारण लार्ड डलहौजी ने 16सितंबर को लिखे पत्रा के आधार पर स्लीमेन को कुछ शर्तों पर वह पद प्रस्तावित किया।
“आपने उच्च प्रतिष्ठा अर्जित की है, आपका सामान्य-प्रशासन का अनुभव, लोगों के संबंध में ज्ञान और वे योग्यताएं जो आपने एक सरकारी-व्यक्ति के रूप में प्राप्त की हैं, के आधार पर मैं आपका नाम कौंसिल ऑफ इंडिया को भेज रहा हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि आप अपने कर्तव्यों का परिपालन बेहतर तरीके से करेंगे। इसलिये मैं यह प्रस्ताव करता हूँ कि आप लखनऊ के रेजिडेंट का पद स्वीकार करें। मैं बड़े परिवर्तनों के प्रसंग में यह प्रस्ताव कर रहा हूँ। खास तौर पर ठगी मामलों के सुपरिटैंडेंट के साथ ही ठगों के परीक्षण कार्यों से भी आप मुक्त किये जाते है। ताकि आप लखनऊ में निंदा मुक्त होकर कार्य कर सकें।
आशा है आप सरकार से अपने को अलग नहीं करेंगे और आपकी सेवाएं पूर्ण क्षमता के साथ जारी रहेंगी। मैंने इसी कारण आपका नाम लिया है, तथा आगे यह भी आशा है कि आपके साथ व्यक्तिगत परिचय बनाने का मौका मिलेगा।
बहुत ईमानदारी के साथ तुम्हारा – (डलहौजी)

स्लीमेन का शेष सरकारी जीवन, जनवरी1849 के बाद अवध में ही बीता। वे मुख्य रूप से अवध के बादशाह के प्रशासन में सुधार लाने और लोगों को अत्याचार की पीड़ा से मुक्ति दिलाने में लगे रहे। उन्होंने 1 दिसंबर 1849 से तीन महीने की यादगार अवध यात्रा की। इस यात्रा के विवरण और घटनाओं की यादों को उन्होंने अपनी किताब ‘जर्नी थ्रो द किंगडम ऑफ अवध’ में संकलित किया है। इस किताब के तथ्यों ने कोर्ट ऑफ डॉयरैक्टर्स और सरकार को अवध के बारे में फैसला लेने मे मदद पहुँचाई। सरकार द्वारा लिये गये फैसले का स्लीमेन ने विरोध भी किया, वे लगातार प्रशासन में सुधार के पैरोकार बने हुए थे। स्लीमेन ने अपने विचारों को एक पत्रा मे अभिव्यक्त किया है, जो 1854 या 55 मे ‘द टाइम्स’ नामक समाचार पत्रा में नवंबर 1857में प्रकाशित भी हुआ है –
“हमें अवध का संयोजन या उसे जब्त करने का कोई अधिकार नहीं है, परंतु हमें उसका प्रबंधन अपने हाथ में लेने का अधिकार 1837 की संधि के आधार पर प्राप्त है। परंतु उसका राजस्व हमारे लिये नहीं है। हम ऐसा, राज्य के प्रति सम्मान और लोगों के फायदे को ध्यान में रखते हुए कर सकते हैं। अवध को हथियाने का काम एक तरह का अनुचित आचरण है और यह असम्मानजनक भी है। अवध का संयोजन करके, लोगों को एक शासन देने का प्रयास भी लगभग उतना ही बुरा साबित होगा, जितना अभी उनकी अपनी शासन-व्यवस्था है। तब तो और भी जब हम उन पर अपना पेंच जमाने की कोशिश करेंगें।“
रेजिडेंट स्लीमेन के द्वारा अवध में अपराधों को दबाने और प्रशासन में सुधार लाने के प्रयासों ने भ्रष्ट अदालतों के प्रति क्रोध को भड़का दिया और स्लीमेन की जिंदगी को खतरे में डाल दिया। उन पर लखनऊ में हत्या के तीन प्रयास भी किये गये।
पहला प्रयास दिसंबर 1851 में किया गया,जिसका विवरण स्लीमेन के 16 दिसंबर के पत्र में दिया गया गया है, इस पत्र को जनरल हर्वे ने‘सम रिकॉर्ड्स ऑफ क्राइम’ में संग्रहित किया है। तब टीकाराम नाम के अर्दली ने स्लीमेन के प्राणों की रक्षा की, जो खुद इस प्रयास में बुरी तरह जख्मी हो गया था। जाँच के बाद यह सिद्ध हो गया कि इसके लिये अवध के राजा के मुंशी द्वारा हत्यारे का उकसाया गया था।
हत्या का दूसरा प्रयास 9 अक्टूबर 1853 में किया गया। इसका उल्लेख स्लीमेन ने भारत सरकार को लिखे अपने पत्र में किया है। स्लीमेन पूरे वर्ष भर लखनऊ में रहते हुए सदा ऊपर के कमरे में सोया करते थे, जिसके लिये एक अलग सीढ़ी का प्रयोग होता था और इस सीढी की सुरक्षा में दो संतरी रखे जाते थे। संतरियों ने नशा कर रखा था, इसका फायदा उठा कर दो लोग एक कपड़ा ओढ़ कर सीढ़ियों से ऊपर पहुँच गये। उन्होंने अपनी तलवार से बिस्तर पर वार किया किंतु बिस्तर खाली था,क्योंकि स्लीमेन एक दूसरे कमरे में सोने चले गये थे।
हत्या का तीसरा प्रयास किये जाने की निश्चित तिथि का पता नहीं चल पाया है परंतु उनका परिवार 1853 और 1856 के बीच घटी इस घटना को उनके परिवार द्वारा याद किया जाता है। एक दिन जब स्लीमेन अपने अध्ययन कक्ष को पार कर रहे थे, उन्होंने किसी कारण से पीछे मुड़कर देखा तो पर्दे के पीछे सरसराहट सी
हुई। उन्होंने देखा कि एक आदमी अपने हाथ में एक बड़ा सा चाकू लिये खड़ा हुआ है। निहत्थे स्लीमेन ने उस आदमी को ललकारा – “चाकू इधर लाओ तुम ठग हो न्!”
उसने जादुई सम्मोहन में फंसते हुए स्वीकारा कि वह ठग है और उसने अपना चाकू उनके हाथ में दे दिया। उसे रेजीडेंसी में कुछ समय के लिये नौकरी पर बिना संदेह के रख लिया गया था। इस तरह का व्यक्तिगत जोखिम होते हुए भी, इन घटनाओं का स्लीमेन पर कोई असर नहीं हुआ और वे इनसे जरा भी घबराए बिना अपने निस्वार्थ कार्यों में लगे रहे।
1854 तक आते-आते, तनाव भरी सेवा के 45वर्ष बिताने वाले स्लीमेन की मजबूत काठी चरमराने लगी। वे पहाड़ों की सैर पर जाकर फिर से अपनी पुरानी सेहत हासिल करना चाहते थे, पर उनकी कोशिश बेअसर साबित हुई। तब उन्हें सरकार द्वारा वापस अपने घर इंग्लैंड जाने का हुक्म मिला। 10 फरवरी 1856को जब वे ‘मोनार्क’ नामक जहाज से घर वापसी की यात्रा पर थे, सीलोन के समुद्र-पथ पर 67 वर्ष की आयु में संसार को अलविदा कह गये। उन्हें समुद्र में ही दफना दिया गया। मृत्यु के कुल 6 दिनों बाद ही उन्हें उनके देश ने सबसे बड़े राजकीय सम्मान नाईट आर्डर ऑफ द बाथ (के सी बी) से नवाजा। लार्ड डलहौजी की अपने विश्वसनीय अफसर से मिलने की गहरी इच्छा थी, परंतु वह कभी पूरी नहीं हुई। डलहौजी और स्लीमेन के बीच हुआ यह पत्रा-व्यवहार अपना पर्याप्त महत्व रखता है –
बैरकपुर पार्क
9 जनवरी 1856
मेरे प्यारे जनरल स्लीमेन,
मैंने तुम्हारे कलकत्ता आने और कमजोर स्वास्थ्य के बारे में सुना। मैं अपनी कलम के द्वारा तुम्हें थोड़ा सा परेशान करने की इच्छा रखता हूँ, ताकि तुमसे सम्पर्क कायम कर सकने में सफल हो सकूँ। कुछ समय से, जो कि भारत सरकार से मेरी सेवा-निवृत्ति से संबंधित विवरणों को व्यवस्थित करने में बिता रहा हूँ,। मैंने महारानी से प्रार्थना की है कि मैं उनकी सेवा में कुछ ऐसे नामों को विचारार्थ भेजना चाहता हूँ, जिन्होंने महारानी के हितों के लिये उत्तम कोटि के कार्य किये हैं। मुझे कहा गया है कि मैं एक प्रेसीडेंसी से एक ही नाम का प्रस्ताव भेजूं। बंगाल आर्मी से जो नाम चुना गया है वह तुम्हारा खुद का नाम है और मैं आशा करता हूँ कि वे तुम्हारे कार्यों, योग्यताओं तथा सम्मानपूर्ण सेवाओं से प्रसन्न होंगी और तुम्हें‘नाईट कमांडर ऑफ बाथ’ के सम्मान नवाजेंगी।
इस समय तक मुझे मेरे प्रस्ताव वाले पत्र का कोई उत्तर नहीं मिला है। परंतु जैसे ही तुम प्रेसीडेंसी पहुँचोगे, मैं तुम्हें तुरंत बता दूंगा कि इस बारे में क्या हुआ है? आशा है कि तुम उसे अपनी सेवाओं के उच्चतम मूल्य और प्रमाण के रूप में ग्रहण करोगे। जैसा कि तुम्हारे काम की उच्चतम कोटि को मैं और सम्पूर्ण भारतवासी मानते हैं।
हमेशा आपका
डलहौजी
स्लीमेन ने लार्ड डलहौजी के इस पत्रा का 11जनवरी, 1856 को उत्तर देते हुए लिखा –
मेरे प्रभु!
मैं पिछली शाम को आपकी प्रभुता से, तब महक उठा जब मुझे बैरकपुर से भेजा गया आपका प्रशंसापूर्ण पत्र मिला। मैंने अपने को उस वक्त कितना सम्मानजनक महसूस किया,यह अभिव्यक्त कर पाने में खुद को असमर्थ पाता हूँ कि आपने महारानी के प्रति की गयी मेरी सेवाओं के प्रति प्रसन्नता व्यक्त की है। और मैं आपकी इस दया के लिये भी अपने को धन्य मानता हूँ कि आपने मेरे पक्ष में पिछले आठ वर्षों में बहुत कुछ किया है। मैं नहीं जानता कि मुझे वह सम्मानपूर्ण कोटि मिलेगी या नहीं,जिसके लिये आपने मेरे नाम का प्रस्ताव किया है। आपका जो पत्र मुझे प्राप्त हुआ है हमारे परिवार के लिये वही उस सम्मान के बराबर है। मुझे विश्वास है कि मेरा बेटा आदरपूर्ण गर्व की भावनाओं से भरा रहेगा कि उसके पिता को लार्ड डलहौजी के द्वारा इतने कृपांक दे कर उन्हें प्रावीण्यता प्रदान की गयी।
मेरा दाहिना हाथ उस अपंग अवस्था में पहुँच गया है कि मैं पत्र लिखने मे भी उसका उपयोग नहीं कर पा रहा हूँ, और मेरी शारीरिक शक्ति भी इतनी क्षीण हो चुकी है कि मुझे उम्मीद नहीं है कि अपनी इंग्लैंड यात्रा शुरू करने से पहले मैं आपके प्रति व्यक्तिगत आदर प्रकट करने स्वयं उपस्थित हो सकूँगा। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में मेरी यही याचना है कि मुझे इससे अवकाश देने की कृपा करें।
कृपया मेरी अपरिमित शुभकामनाएं स्वीकार करें। आप स्वस्थ एवं सुखी हों। मेरी प्रत्येक भावना आपके प्रति आदर तथा कृतज्ञता से भरी हुई है।
आपका विश्वसनीय और आज्ञाकारी सेवक
डबल्यू.एच. स्लीमेन, मेजर जनरल
सर विलियम स्लीमेन अनके प्रकार की बोलियों, अरबी, फारसी और उर्दू भाषा के साथ-साथ लैटिन, ग्रीक और फ्रेंच भाषाओं के भी अच्छे जानकार थे। उनका लेखन इस बात की गवाही देता है कि वे विज्ञान, भूगर्भशास्त्रा,कृषि, रसायनशास्त्रा और राजनैतिक अर्थशास्त्रा एवं इतिहास के ज्ञाता थे और इन विपयोंष्ष्से सीखे गये सबक के लिये उनकी विद्वता की सराहना की जाना चाहिये। न केवल कला के प्रति उनका तीव्र रूझान था, बल्कि कविता के प्रति तो वे विशेष आकर्षित थे। शेक्सपीयर, मिल्टन, स्कॉट, वर्डस्वर्थ और कॉपर जैसे रचनाकार उनके सर्वाधिक प्रिय थे। भारतीयों के रीति रिवाजों और सोच का जितना ज्ञान उन्हें था, शायद ही और किसी को होगा और शायद ही कोई इस क्षेत्रा मे उनके आगे निकल पायेगा। इसी ज्ञान के बल पर वे एक कुशल प्रशासक बन सके। उनकी सबसे महान् उपलब्धि ठगों की संगठित हत्याओं की प्रणाली का उन्मूलन करना रही है।