ममता बनर्जी मगन हैं. 48 घंटे के अनशन और 23 पार्टियों के नैतिक समर्थन के बाद वो बल्लियों उछल रही हैं. उन्होनें जिस तरह धरने के मंच से दिल्ली कूच का ऐलान किया, उससे साफ है कि उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लिया है. हालांकि चुनाव के ऐलान में तकरीबन एक महीने का वक्त बचा है और न कोई संयुक्त विपक्ष है- न कोई ‘यूनिफाइड कमांड.’
अगर मान लें कि किसी तरह नरेंद्र मोदी का रथ रुका तो तस्वीर वही बनेगी, जिसका इशारा शरद पवार पहले ही कर चुके हैं. जिस राज्य में जो दल मजबूत हैं वो वहां बीजेपी से लड़ेंगे. उसके बाद सब इकट्ठा हुए तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनेगा. जाहिर है ममता बनर्जी चुनाव से पहले तो प्रधानमंत्री पद के लिए विपक्ष की साझा उम्मीदवार नहीं होंगी.
लेकिन अपने मंच पर चंद्रबाबू नायडू से लेकर कनीमोझी और तेजस्वी तक को देख कर गदगद ममता ने साफ कहा, ‘ये धरना टीएमसी का नहीं था…ये लोकतंत्र बचाने के लिए था, संविधान बचाने के लिए था, सबसे विचार विमर्श के बाद हम ये धरना खत्म कर रहे हैं.’
कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व ममता के साथ तो राज्य इकाई एकदम खिलाफ
सोलहवीं लोकसभा में 42 सीटों वाले बंगाल से ममता 34 सांसद लेकर आईं थीं. केंद्र सरकार से इस टकराव के बाद उन्हें उम्मीद होगी कि बंगाल की जुझारू जनता उन्हें इतनी ही सीटों के साथ फिर दिल्ली भेजेगी.
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हालांकि इस बार उनके लिए हालात पहले जैसे हैं या नहीं, ये भी देखना होगा. जिस लेफ्ट से ममता ने सत्ता छीनी एक बार फिर वो ताल ठोंक रहा है. कोलकाता के मशहूर ब्रिगेड परेड ग्राउंड में 3 फरवरी को लेफ्ट की रैली में जुटी लाखों की भीड़ इसका सबूत है. इसी दिन सीबीआई और ममता सरकार का टकराव भी शुरू हुआ. ममता के धरने को वो पहले ही नाटक करार दे चुका है.
कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व भले ही ममता के साथ दिख रहा हो, राज्य इकाई ममता के एकदम खिलाफ है. बंगाल कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी इस टकराव को बीजेपी और तृणमूल की नूराकुश्ती करार दे चुके हैं. अधीर इस बात से भी चिढ़ते हैं कि दस जनपथ ममता को तरजीह दे रहा है.
बंगाल में बड़ी लड़ाई लड़ रही है बीजेपी
धरना खत्म होने के अगले ही दिन कांग्रेस ने कोलकाता में ममता के खिलाफ बड़ा प्रदर्शन किया. हालांकि कांग्रेस नेतृत्व का सच ये है कि अभी जो भी मोदी सरकार के खिलाफ है, वो उसके साथ दिख रहे हैं. बहरहाल लेफ्ट और कांग्रेस दोनों बंगाल के पारंपरिक ‘प्लेयर्स’ हैं, इन्हीं में से एक कांग्रेस को तोड़कर 1998 में ममता की तृणमूल बनी.
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सबसे पहला सुभाष चंद्र बोस पर- जिसकी शुरुआत उनसे जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से हुई(भले ही उनसे कुछ खास निकला न हो). फिर उनके परिवार के सदस्यों को पार्टी में लाया गया, और अब तो लालकिले में उनके नाम पर स्मारक ही बना दिया.
दूसरा- श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिनसे पार्टी का रक्त संबंध है और इसे वो रह-रह कर बंगाली मानुष को बताती रहती है.
तीसरे- प्रणब मुखर्जी जिन्हें भारत रत्न देने का ऐलान हो चुका है. बल्कि प्रणब दा तो संघ मुख्यालय नागपुर भी हो आए.
सवाल है कि इनसे बीजेपी को हासिल क्या है? कोलकाता के एक दैनिक अखबार में कार्यरत एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक, ‘हलचल तो बढ़ी है. हालांकि इससे बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन बीजेपी कुछ सीटों पर कमाल दिखा भी सकती है. मगर BJP अब भी बंगाल के मूड से मेल नहीं करती. ममता पहले ही अपने वोटरों से BJP को बाहरी बताती रही हैं.’
‘उत्तर प्रदेश एक बार फिर देश को प्रधानमंत्री देगा’
प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए रिंग में रुमाल मायावती भी फेंक चुकी हैं. यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी के बाद मायवती की ख्वाहिश अब 60 पार की उम्र में दिल्ली की गद्दी पर बैठने की है. एसपी-बीएसपी का गठबंधन इसी डिजाइन के तहत बना है, ये किसी से छिपा नहीं.
अखिलेश कह चुके हैं, ‘उत्तर प्रदेश ने हमेशा देश को प्रधानमंत्री दिया है. उत्तर प्रदेश एक बार फिर देश को प्रधानमंत्री देगा. हमें खुशी होगी कि कोई उत्तर प्रदेश से प्रधानमंत्री बने. आपको पता तो है ही कि हम किसे अपना समर्थन देंगे.’
यही नहीं अगर तालमेल के लिहाज से देखें तो मायावती की स्वीकार्यता भी ज्यादा होगी. यूपी में पहले ही वो एक कंफर्टेबल गठबंधन बना चुकी हैं. लालू के बेटे तेजस्वी उनका पैर छूकर आशीर्वाद ले चुके हैं. भले ही वो कांग्रेस को यूपी में गठबंधन से दरकिनार कर चुकी हों, बेंगलुरु में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में सोनिया गांधी के साथ उनकी आत्मीय तस्वीर और राहुल के उनके लिए नरम बयान आप भूले नहीं होंगे.
कांग्रेस किससे लिए करेगी बलिदान- ब्राह्मण ममता या दलित मायावती?
अखिलेश हों या तेजस्वी इनमें से किसी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी नहीं है. बचे राहुल तो आरामदायक सीटों के बगैर वो भी गठबंधन के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे इसकी उम्मीद कम है.
अगर सामान्य वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण के नाम पर तमाम विरोध के बावजूद सियासी दल एकजुट हो सकते हैं (हालांकि बाद में सबने उसे धोखा ही करार दिया). उसी तरह एक दलित की बेटी को प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तो तमाम विरोध दब सकता है. इस प्रस्ताव को लेफ्ट का भी समर्थन मिलेगा.
मत भूलिए कि एक बार मायावती को ही प्रधानमंत्री बनवाने के लिए लेफ्ट आगे आया था. ये किस्सा है 2008 के अविश्वास प्रस्ताव का. जब CPM महासचिव प्रकाश करात की जिद पर अमेरिका से न्यूक्लियर डील के खिलाफ लेफ्ट ने यूपीए से समर्थन खींच लिया था, और दिल्ली में मायावती के घर दावत हुई थी.