केंद्र की मोदी सरकार ने चुनाव आयोग की एक सिफ़ारिश को लागू किया और इसके बाद कांग्रेस समेत विपक्षी दल इस पर सवाल उठा रहे हैं.
दरअसल केंद्र सरकार ने चुनाव आचार संहिता में संशोधन करते हुए चुनावी दस्तावेज़ों के एक हिस्से को आम जनता की पहुंच से रोक दिया है.

भारत सरकार के विधि और न्याय मंत्रालय ने शुक्रवार को चुनाव आयोग की सिफारिश के आधार पर सीसीटीवी कैमरा और वेबकास्टिंग फ़ुटेज को सावर्जनिक करने पर रोक लगा दी है.
बीबीसी ने मामले में बीजेपी के कुछ राष्ट्रीय प्रवक्ताओं से संपर्क किया लेकिन उनकी तरफ़ से इस विषय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई.
कांग्रेस ने इस क़दम को संविधान और लोकतंत्र हमला बताया है.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने एक्स पर लिखा, “मोदी सरकार द्वारा चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को कम करने का नपा-तुला प्रयास संविधान और लोकतंत्र पर सीधा हमला है और हम उनकी रक्षा के लिए हर क़दम उठाएंगे.”
पहले क्या था नियम ?
चुनाव संचालन नियम, 1961 के नियम 93(2) (अ) में संशोधन से पहले लिखा था कि ‘चुनाव से संबंधित अन्य सभी कागजात सार्वजनिक जांच के लिए खुले रहेंगे.’
संशोधन के बाद इस नियम में कहा गया है कि ‘चुनाव से संबंधित इन नियमों में निर्दिष्ट अन्य सभी कागजात सार्वजनिक जांच के लिए खुले रहेंगे.’
इस बदलाव से चुनावी नियमों के अलग-अलग प्रावधानों के तहत केवल चुनावी पत्र (जैसे नामांकन पत्र आदि) ही सार्वजनिक जांच के लिए खुले रहेंगे.
उम्मीदवारों के लिए फॉर्म 17-सी जैसे दस्तावेज़ उपलब्ध रहेंगे लेकिन चुनाव से संबंधित इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड और सीसीटीवी फ़ुटेज सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं रहेगी.
अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स में चुनाव आयोग के अधिकारियों से इस मुद्दे पर बातचीत की गई है.
इंडियन एक्सप्रेस से चुनाव आयोग के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “मतदान केंद्र के अंदर सीसीटीवी फ़ुटेज के दुरुपयोग को रोकने के लिए नियम में संशोधन किया गया है. सीसीटीवी फुटेज साझा करने से विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में गंभीर परिणाम हो सकते हैं, जहां गोपनीयता महत्वपूर्ण है. मतदाताओं की जान भी जोखिम में पड़ सकती है. सभी चुनाव पत्र और दस्तावेज़ सार्वजनिक जांच के लिए उपलब्ध हैं.”
संशोधन से पहले हाई कोर्ट का आदेश
संशोधन से कुछ दिन पहले पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने नौ दिसंबर को चुनाव आयोग को निर्देश दिया था कि वह वकील महमूद प्राचा को हरियाणा विधानसभा चुनाव से संबंधित आवश्यक दस्तावेज उपलब्ध कराएं.
महमूद प्राचा ने हरियाणा विधानसभा चुनाव से संबंधित वीडियोग्राफ़ी, सीसीटीवी फ़ुटेज और फॉर्म 17-सी की प्रतियां उपलब्ध कराने के लिए हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी.
याचिका में कहा गया था कि रिटर्निंग ऑफिसर के लिए जारी हैंडबुक में यह प्रावधान है कि उम्मीदवार या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा आवेदन किए जाने पर ऐसी वीडियोग्राफी उपलब्ध कराई जानी चाहिए.
याचिका का विरोध करते हुए चुनाव आयोग के वकील ने कोर्ट में कहा था कि प्राचा न तो हरियाणा के निवासी हैं और न ही उन्होंने किसी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा है. ऐसे में उनकी मांग सही नहीं है.
प्राचा की तरफ़ से कहा गया था कि चुनाव संचालन नियम, 1961 के मुताबिक़, उम्मीदवार और दूसरे व्यक्ति के बीच यह अंतर है कि उम्मीदवार को दस्तावेज़ निशुल्क दिए जाने हैं जबकि किसी अन्य व्यक्ति को इसके लिए एक निर्धारित शुल्क देना होगा.
प्राचा के वकील ने कहा था कि वो निर्धारित शुल्क का भुगतान करने के लिए तैयार और इच्छुक हैं.
मामले में जस्टिस विनोद एस. भारद्वाज ने कहा था कि चुनाव आयोग छह सप्ताह के भीतर आवश्यक दस्तावेज़ उपलब्ध कराए. इस आदेश के दो हफ़्ते के भीतर केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग की सिफारिश को लागू कर दिया.
ताज़ा घटनाक्रम पर वकील महमूद प्राचा का कहना है कि वो इस मामले को आगे तक लेकर जाएंगे.
क्या कह रहे हैं जानकार?
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा का कहना है कि यह संशोधन चुनाव आयोग की कार्यशैली पर एक और सवाल खड़ा करता है.
विनोद शर्मा कहते हैं, “हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि याचिकाकर्ता को संबंधित डेटा दे दीजिए और इस आदेश के कुछ दिन बाद यह संशोधन किया गया. इसकी टाइमिंग अपने आप में सवाल खड़ा करती है और यह संशोधन संसद से तो पारित नहीं हुआ है. लोग लगातार आयोग के नियमों और फ़ैसलों पर सवाल उठा रहे हैं और अब यह फ़ैसला आ गया.”
लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान भी चुनाव आयोग आरोपों और विवादों के केंद्र में था.
तब चुनाव आयोग पर मतदान संबंधी आंकड़ों को देरी से जारी करने का आरोप लगा था. एक विवाद वोटिंग प्रतिशत को लेकर भी था. लोकसभा चुनाव में कुल वोटों की संख्या की बजाय वोटिंग प्रतिशत जारी किया गया.
इन आरोपों पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा था कि चुनाव की प्रक्रिया पहले से तय होती है और बीच चुनाव में इसे बदला नहीं जा सकता है.
इसके अलावा ईवीएम और पोस्टल बैलेट से जुड़े सवाल भी लगातार उठते रहते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद गुप्ता हालिया संशोधन को लोगों के भरोसे से जोड़कर देखते हैं.
शरद गुप्ता कहते हैं, “संशोधन के साथ इसका कोई ठोस कारण नहीं बताया गया है. इससे चुनाव आयोग के प्रति लोगों का भरोसा कम होगा. इसको छोड़ देना चाहिए था ख़ासकर ऐसे समय पर जब चुनाव आयोग पर ईवीएम से लेकर अलग-अलग तरह के सवाल उठ रहे हों.”
क्या इस फ़ैसले से चुनाव आयोग की पारदर्शिता पर असर पड़ेगा?
इस सवाल के जवाब में विनोद शर्मा कहते हैं, “चुनाव आयुक्त को रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट के तहत काम करना चाहिए लेकिन अतीत में ऐसे कई मौक़े आए जब वो इसके तहत काम करते हुए नहीं दिखे. कई बार तो विपक्षी दलों को समय तक नहीं देते हैं. चुनाव कराने के लिए देश की सबसे बड़ी संस्था में ऐसा संशोधन किया जाता है तो आप इसे क्या कहेंगे.”
शरद गुप्ता का कहना है, “जब सीसीटीवी फ़ुटेज है और आप उसे जारी नहीं करते हैं तो स्वाभाविक है कि लोगों के मन में संदेह पैदा होगा. अगर आप फ़ुटेज नहीं दे रहे हैं तो लोग पारदर्शिता पर तो सवाल ज़रूर उठाएंगे.”