MP Politics : कैलाश विजयवर्गीय का शिवराज से महाराज तक का सफर

 भोपालः बीते सोमवार को इंदौर में कैलाश विजयवर्गीय के घर पर केंद्रीय मंत्री सिंधिया की अचानक आमद से मध्य प्रदेश की राजनीति में अब तक हलचल है। सिंधिया और विजयवर्गीय भले इसे सामान्य शिष्टाचार भेंट बता रहे हों, लेकिन मुलाकात के राजनीतिक मायने निकाले जाने का सिलसिला रुक नहीं रहा। कुछ लोग इसे इन दोनों नेताओं की प्रदेश की राजनीति में वापसी की छटपटाहट के रूप में देख रहे हैं। दूसरी ओर, कुछ लोगों का मानना है कि कभी सिंधिया को निपटाने की कसमें खाने वाले विजयवर्गीय अब उनके साथ मिलकर मुख्यमंत्री शिवराज से बदला लेने की तैयारी कर रहे हैं। कारण चाहे जो भी हो, लेकिन दुश्मन से दोस्त बने इन दोनों की करीबियों ने बीजेपी के उन नेताओं की भी नींद उड़ा दी है जो शिवराज के बाद कौन की परिस्थितियों में खुद को दावेदार मानते हैं।

कभी शिवराज के सबसे विश्वस्त थे विजयवर्गीय
कैलाश विजयवर्गीय कभी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सबसे विश्वस्त सहयोगियों में शामिल थे। शिवराज के पहली बार मुख्यमंत्री बनने से लेकर इस पद पर उनके दूसरे कार्यकाल तक विजयवर्गीय की तूती बोलती थी। शिवराज ने इंदौर के मामलों में उन्हें फ्री हैंड दे रखा था। इतना कि विजयवर्गीय के समर्थक उन्हें इंदौर का बाल ठाकरे बताने से भी बाज नहीं आते थे। 2011 के बाद शिवराज को लगने लगा कि विजयवर्गीय उनके लिए राजनीतिक चुनौती बन सकते हैं। इसके बाद उनके पर काटे जाने लगे। सरकार और पार्टी में विजयवर्गीय के प्रभाव को कम करने की अंदरखाने कोशिशें शुरू हो गईं।

सिंधिया को बताया था छोटा नेता
जिन दिनों शिवराज और कैलाश की जुगलबंदी मध्य प्रदेश की राजनीति में शबाब पर थी, उसी दौरान सिंधिया के साथ विजयवर्गीय की अदावत भी शुरू हो गई थी। इसका ताल्लुक राजनीति से ज्यादा क्रिकेट से था। एमपी क्रिकेट एसोसिएशन पर कब्जे को लेकर भी ज्योतिरादित्य सिंधिया और कैलाश विजयवर्गीय भिड़ते रहे हैं। 2010 में एमपीसीए के चुनाव के दौरान सिंधिया ने विजयवर्गीय को 10 वोट से हराया था। हार के बाद विजयवर्गीय ने सिंधिया को छोटा नेता बताया था। उसके बाद दोनों कभी एक दूसरे के खिलाफ चुनाव नहीं लड़े, पर पर अपने-अपने समर्थक नेताओं को जिताने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते थे। इसमें सिंधिया हर बार बाजी मार लेते थे। अपने गढ़ इंदौर में सिंधिया के हाथों मिली पराजय को विजयवर्गीय कभी स्वीकार नहीं कर पाए।

शिवराज से दूरियां बढ़ी, प्रदेश की राजनीति से दूर हुए
2013 में शिवराज ने गोपाल भार्गव को इंदौर का प्रभारी मंत्री बनाया तो विजयवर्गीय इससे कुढ़ गए। साल 2014 में केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने तक शिवराज और विजयवर्गीय के बीच की दूरियां रिश्तों में खटास का रूप ले चुकी थीं। विजयवर्गीय कई बार सार्वजनिक मंच से शिवराज के फैसलों पर भी सवाल उठाने लगे थे। बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने संतुलन बनाए रखने के लिए साल 2015 में विजयवर्गीय को हरियाणा विधानसभा चुनाव का प्रभारी बना दियाष चुनाव में बीजेपी की शानदार जीत हुई और इसका श्रेय विजयवर्गीय को मिला। उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया और वे अमित शाह के सबसे खास सिपहसलार बन गए। पार्टी के राष्ट्रीय संगठन में विजयवर्गीय का कद बढ़ा, लेकिन प्रदेश की राजनीति से दूर होने का गम उन्हें सालता रहा। विजयवर्गीय को लगा कि उन्हें एमपी की राजनीति से दूर करने के लिए शिवराज ने यह चाल चली थी। आगे चलकर उन्हें बंगाल चुनाव की जिम्मेदारी दी गई। वहां वे पार्टी को जीत नहीं दिला सके। इसके बाद उन्हें कोई नई जिम्मेदारी नहीं मिली तो वे फिर से प्रदेश की राजनीति में वापसी के लिए हाथ-पैर मारने लगे।

सिंधिया की दबी इच्छा से सभी वाकिफ
विजयवर्गीय की तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया भी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने के लिए लगातार कोशिश कर रहे हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद उन्हें लगा कि ये इच्छा पूरी हो सकती है, लेकिन कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से दूर कर दिया। सिंधिया ने भोपाल में बंगले की इच्छा जताई, लेकिन कमलनाथ ने इस पर भी पानी फेर दिया। नाराज सिंधिया कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए। इसके पीछे भी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने की उनकी इच्छा बड़ा कारण था। केंद्र में मंत्री बनने के बाद भी उनकी यह इच्छा कमजोर नहीं हुई है। वे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के बाद अपने लिए प्रदेश में बड़ी भूमिका तलाश रहे हैं। इसके लिए वे पूरे प्रदेश के दौरे कर रहे हैं और तमाम नेताओं से मिल रहे हैं। इंदौर में विजयवर्गीय के घर मुलाकात भी उसी की एक कड़ी है।

सतर्क हुए पार्टी के दूसरे नेता
सिंधिया और विजयवर्गीय की दोस्ती दोनों के लिए मददगार हो सकती है। दोनों एक दूसरे के लिए रास्ता आसान कर सकते हैं, लेकिन उनकी मुलाकात ने बीजेपी के कई अन्य बड़े नेताओं की नींद उड़ा दी है। खासकर वे नेता जो शिवराज के बाद कौन के लिए खुद को दावेदार मानते हैं। इन नेताओं को भी 2023 के विधानसभा चुनावों के बाद अपने लिए नई संभावनाओं की तलाश है, लेकिन यह दोस्ती उनके लिए नई चुनौती बन सकती है।

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