स्वाभिमान इतना भी न बढ़ाएं की अभिमान बन जाये ,अभिमान इतना भी न बढ़ाएं की स्वाभिमान ही मर जाये !

सामान्यतः हम स्वाभिमान और अभिमान शब्द को एक जैसा ही समझते हैं , परन्तु इनमे बहुत अंतर है | जब मान का भाव केवल स्वयं के प्रति होता है ,तब ये अभिमान कहलाता है और जब यह भाव दुसरो के लिए होता है तभी यह भाव स्वाभिमान बन जाता है |
कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का अपमान क्यों करता है ? क्या अपने कभी विचार किया है ?वैसे तो हम भी बहुतों का अपमान करते हैं ,हमारा अपना अपमान भी बहुत बार होता है. हम सभी का सारा व्यवहार अब एक दूसरे का अपमान करने में टिका है | जैसे पति अपनी पत्नी का अपमान करता है ,पिता अपनी सन्तानो का ,नौकरी देने वाला अपनी नौकर का अपमान करता है | अर्थात जो भी बलवान हैं वो निर्बल का अपमान करते हैं | तो अगर हम शक्तिमान हैं तो लड़ाई करते हैं , और नहीं तो हम अपमान शह लेते हैं | स्वयं को निर्बल और असहाय मान लेते हैं | ऐसा जान पड़ता है जैसे हमारी आत्मा कुचली गई हो |
पर कोई किसी का अपमान क्यों करता है , हम विचार कर रहे थे की जब अपमान होता है तो मनुष्य को अपनी निर्बलता का आभाष होता है , और निर्बलता का बोध मनुष्य को और भी ज़्यादा कमज़ोर बना देता है , अत्याचार सहने की आदत सी पद जाती है , आत्मविश्वाश का नाश हो जाता है। और जब आत्मसम्मान नहीं होता तो मनुष्य मदिरा पान की ओर सुख ढूंढता है |मन से रोगी बन जाता है|
किसी भी मनुष्य की कोई ऐसी दुर्गति क्यों करता है ? अपमान करने वाला वास्तव में क्या सिद्ध करना चाहता है |
वास्तव में हम जब किसी का अपमान करते हैं किसी की निर्बलता सिद्ध करने के लिए ,ये बताने के लिए के हम ज़्यादा बलवान हैं |
अपमान करने वाला वास्तव में अपनी शक्तियों से आस्वस्त नहीं है ,उससे अपने शक्तियों पर भरोषा नहीं है, दूसरों को चुनौती देकर वह अपनी ऊपर विश्वास प्राप्त करने की क़ोशिश करता है | क्या ये सच नहीं के जब हम किसी का अपमान करते हैं तो वास्तव में हम इतना ही प्रकट करते हैं ,के हमे अपने बल पर भरोसा नहीं |

कभी न रुकने वाली एक जंग सी प्रतीत होती है | हम अपने निकट आने वाले हर व्यक्ति को प्रतिद्वंदी मानते हैं , फिर वह पति या पत्नी ही क्यों न हो | हमे बार बार यही लगता है के हमे अपनी शक्तियां सिद्ध करनी होगी अन्यथा हमारा शोषण होगा | हम किसी के गुलाम बन जायेंगे | किन्तु क्या हमने कभी यह सोचा है के दूसरों को प्रतिद्वंदी दुशमन मैंने के बदले , कलीग मान लें , हमारी सहायता करने वाले सहयोगी मान लें , उससे प्रेम करें तो उसका अपमान करना आवश्यक ही नहीं होगा |
किन्तु प्रेम करने के लिए आत्मविश्वाश की आवश्यकता होती है | जिसे अपनी शक्ति पर विश्वाश नहीं वो प्रेम ही नहीं कर सकता | मतलब जिसका ह्रदय आत्मविश्वाश और प्रेम से भरा होता है ,वह कभी किसी का अपमान कर ही नहीं सकता |न अपमान को स्वीकार करता है |

स्वाभिमान और अभिमान यही से उनका उद्गम होता है | प्रेम और आत्मविश्वाश से भरे होते हैं सभी को सम्मान देते हैं और स्वयं को भी , वो स्वाभिमानी व्यक्ति होते हैं | तथा जो व्यक्ति अभिमानी होते हैं वो निरंतर लोगो का अपमान करते हैं और स्वयं को महान दिखते हैं |

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