राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के सुप्रीमो शरद पवार की बेटी और सांसद सुप्रिया सुले 18 अप्रैल को कहा था कि महाराष्ट्र की राजनीति में अगले 15 दिनों में दो बड़े धमाके होने वाले हैं- एक धमाका दिल्ली में होगा और दूसरा महाराष्ट्र में.
सूबे की राजनीति में नए राजनीतिक समीकरण बनने की खबरों के बीच सुप्रिया सुले के इस बयान को लेकर अभी कयासों का दौर थमा भी नहीं था कि एक धमाका हो गया. दो मई को यानी सुले के बयान के ठीक 15 दिन बाद शरद पवार ने पार्टी ने अध्यक्ष पद छोड़ने का ऐलान कर दिया.
मुंबई में अपनी आत्मकथा के विमोचन के मौके पर शरद पवार की यह घोषणा ऐसे समय हुई है, जब न सिर्फ राज्य की शिव सेना (शिंदे)-भाजपा के गठबंधन वाली सरकार के भविष्य पर आशंका के बादल मंडरा रहे हैं बल्कि खुद उनकी पार्टी यानी एनसीपी में भी बगावत होने की अटकलें लग रही हैं.
ऐसी सुगबुगाहट थी कि शरद पवार के भतीजे अजित पवार की अगुवाई में पार्टी के कई विधायक पार्टी से अलग होकर भाजपा के साथ जा सकते हैं, हालांकि बाद में अजित पवार ने इन खबरों को खारिज करते हुए कहा था वे अपनी “आखिरी सांस तक एनसीपी में बने रहेंगे.”
शरद पवार ने चार दिन पहले ही कहा था कि अब तवे पर रोटी पलटने का वक्त आ गया है, अगर सही समय पर अगर रोटी को नहीं पलटा जाए तो वह जल जाती है, पवार ने जब यह बयान दिया था तो उसका आशय यह माना जा रहा था कि वे आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता से हटाने की बात कर रहे हैं, लेकिन अब समझा जा रहा है कि वे अपनी पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन का संकेत दे रहे थे.
हालांकि पवार के ऐलान से पार्टी के नेता और कार्यकर्ता हतप्रभ हैं और वे अपने नेता पर फैसला बदलने के लिए दबाव बना रहे हैं. कम-से-कम ऊपर से तो यही दिख रहा है कि ऐसा दबाव बनाने वाले नेताओं में खुद अजित पवार भी शामिल हैं, उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा है, ”आप लोग धीरज रखें, पवार साहब अपना फैसला वापस ले लेंगे.”
पवार को मनाने की कोशिशें
पवार अपना फैसला बदलेंगे या नहीं और उनके फैसला नहीं बदलने के स्थिति में उनका राजनीतिक वारिस कौन होगा, यह तो आने वाले कुछ दिनों में साफ होगा. बहरहाल, मराठा नेता के ऐलान से महाराष्ट्र की राजनीति में वाकई एक तरह से भूचाल आ गया है.
कई लोग कह रहे हैं कि पवार ने यह फैसला अपनी बढ़ती उम्र और गिरते हुए स्वास्थ्य को देखते हुए लिया है, लेकिन यह बात आसानी से हजम होने वाली नहीं है, क्योंकि सात महीने पहले सितंबर 2022 में ही वे नए सिरे से चार साल के लिए पार्टी के अध्यक्ष चुने गए थे.
यही नहीं, चंद दिनों पहले तक वे विपक्षी एकता के सिलसिले में भी बेहद सक्रियता से काम कर रहे थे और उन्होंने विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात की थी.
वैसे शरद पवार अपने लंबे राजनीतिक जीवन में चौंकाने वाले फैसले लेने और कुछ समय बाद उन फैसलों को पलटने के लिए विख्यात रहे हैं. वे कब क्या फैसला लेंगे, इसकी अंदाजा उनके भरोसेमंद राजनीतिक सहयोगियों को भी नहीं रहता है.
महाराष्ट्र के सबसे युवा सीएम रहे हैं पवार
कांग्रेस के ज़रिए 1967 में 27 साल की उम्र अपने राजनीतिक सफ़र की शुरुआत करने वाले 83 वर्षीय शरद पवार शुरू से ही बेहद महत्वाकांक्षी रहे हैं. उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा की ख़ातिर पार्टी छोड़ने या तोड़ने से भी कभी गुरेज़ नहीं किया.
1977 में जब कांग्रेस पहली बार केंद्र की सत्ता से बाहर हुई और उसका विभाजन हुआ तो उन्होंने इंदिरा गांधी का साथ छोड़कर अपने राजनीतिक गुरू यशवंत राव चह्वाण की अगुवाई वाली कांग्रेस के साथ रहना पसंद किया, लेकिन बहुत जल्दी ही वे उस पार्टी से भी अलग हो गए. उन्होंने समाजवादी कांग्रेस के नाम से नई पार्टी बनाई.
नई पार्टी बनाकर उन्होंने वसंतदादा पाटिल की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार को गिरा दिया और केंद्र में सत्तारूढ़ जनता पार्टी के साथ मिलकर ‘पुरोगामी लोकपक्ष अघाड़ी’ के नाम से गठबंधन की सरकार बनाई, उस सरकार का नेतृत्व संभाल कर उन्होंने महाराष्ट्र का सबसे कम उम्र का मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया.
उनकी यह सरकार ढाई वर्ष तक ही चल पाई. 1980 में इंदिरा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस की सत्ता में वापसी होने पर उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई.
कभी केंद्र में, कभी राज्य में
अपनी सरकार बर्खास्त होने के बाद तीन साल बाद शरद पवार ने महाराष्ट्र में विपक्ष की राजनीति करते हुए केंद्र की राजनीति में अपने लिए जगह तलाशनी शुरू की. इस सिलसिले में उन्होंने 1984 में पहली बार बारामती से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीते, लेकिन जल्दी ही लोकसभा से इस्तीफा देकर राज्य की राजनीति में लौट आए और विधानसभा में विपक्ष के नेता बन गए.
इस बीच इंदिरा गांधी की हत्या हो चुकी थी और कांग्रेस में राजीव गांधी युग शुरू हो गया था.
राजीव गांधी से शरद पवार की आपस में अच्छी जमने लगी और नौ साल बाद 1987 में वे फिर से कांग्रेस में लौट आए. कांग्रेस में लौटने के चंद महीनों बाद ही 26 जून 1988 को उन्हें शंकरराव चह्वाण की जगह महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया गया. करीब 20 महीने बाद उनकी ही अगुवाई में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव लड़ा और फिर से सत्ता में लौटी.
शरद पवार तीसरी बार सूबे के मुख्यमंत्री बने और जून 1991 तक इस पद पर रहे, इस बीच 1991 के लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई, जिसकी वजह से पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने और कांग्रेस का नेतृत्व भी उनके हाथ में आ गया.
नरसिंह राव के प्रधानमंत्री बनने पर शरद पवार भी केंद्र की राजनीति में आ गए और पहली बार केंद्र सरकार में मंत्री बने, उन्हें रक्षा मंत्रालय का दायित्व सौंपा गया, लेकिन दो साल से भी कम समय में नरसिंह राव ने उन्हें फिर सूबे की राजनीति में लौटा दिया और वे मार्च 1993 में चौथी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने.
1995 में विधानसभा चुनाव होने तक वे मुख्यमंत्री रहे लेकिन इस बार उनकी अगुवाई में कांग्रेस को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, राज्य में पहली बार शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन की सरकार बनी, थोड़े ही समय बाद केंद्र की सत्ता से भी कांग्रेस बाहर हो गई.
शरद पवार फिर से कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए संभावनाएं तलाशने लगे.
लेकिन नरसिंह राव के पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद पार्टी की कमान सीताराम केसरी के हाथों में आ गई और फिर थोड़े समय बाद जब 1998 में सोनिया गांधी ने पार्टी की कमान संभाली तो शरद पवार को अंदाजा हो गया कि अब कांग्रेस में रहते हुए वे नेतृत्वकारी भूमिका कभी हासिल नहीं कर पाएँगे.