‘अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा’ : रवीश कुमार

एनडीटीवी के वरिष्ठ पत्रकार कमाल खान की हृदयघात से निधन के बाद देश भर से उनके लिए श्रद्धांजलि और शोक संवेदनाऐं व्यक्त की गई। कमाल खान अपने नाम की तरह ही कमाल के व्यक्ति और पत्रकार थे। उनके लिखने और बोलने की शानदार शैली ने युवा पीढ़ी के बहुत से पत्रकारों को कमाल से बहुत कुछ सीखने मिला।

आज रवीश कुमार ने कहा कि “अब कोई और कमाल खान नही होगा” , पढ़िए पूरा लेख:

उन्होंने केवल पत्रकारिता की नुमाइंदगी नहीं की, पत्रकारिता के भीतर संवेदना और भाषा की नुमाइंदगी नहीं की, बल्कि अपनी रिपोर्ट के ज़रिए अपने शहर लखनऊ और अपने मुल्क हिन्दुस्तान की भी नुमाइंदगी की. कमाल का मतलब पुराना लखनऊ भी था जिस लखनऊ को धर्म के नाम पर चली नफ़रत की आंधी ने बदल दिया. वहां के हुक्मरान की भाषा बदल गई. संवैधानिक पदों पर बैठे लोग किसी को ठोंक देने या गोली से परलोक पहुंचा देने की ज़ुबान बोलने लगे. उस दौर में भी कमाल ख़ान उस इमामबाड़े की तरह टिके रहे, जिसके बिना लखनऊ की सरज़मीं का चेहरा अधूरा हो जाता है. 

उस लखनऊ से अलग कर कमाल ख़ान को नहीं समझ सकते. कमाल ख़ान जैसा पत्रकार केवल काम से जाना गया लेकिन आज के लखनऊ में उनकी पहचान मज़हब से जोड़ी गई. सरकार के भीतर बैठे कमज़ोर नीयत के लोगों ने उनसे दूरी बनाई.कमाल ने इस बात की तकलीफ़ को लखनऊ की अदब की तरह संभाल लिया. दिखाया कम और जताया भी कम. सौ बातों के बीच एक लाइन में कह देते थे कि आप तो जानते हैं. मैं पूछूंगा तो कहेंगे कि मुसलमान है. एक पत्रकार को उसके मज़हब की पहचान में धकेलने की कोशिशों के बीच वह पत्रकार ख़ुद को जनता की तरफ धकेलता रहा. उनकी हर रिपोर्ट इस बात का गवाह है. 

क्योंकि कमाल ख़ान उसकी नज़र से होते हुए ज़हन में उतर जाते थे और अंतरात्मा को हल्के हाथों से झकझोर कर याद दिला देते थे कि सब कुछ का मतलब अगर मोहब्बत और भाईचारा नहीं है तो और क्या है. और यही तो मज़हब और यूपी की मिट्टी के बुजुर्ग बता गए हैं. कमाल ख़ान जिस अधिकार पर राम और कृष्ण से जुड़े विवादों की रिपोर्टिंग कर सकते थे उतनी शालीनता से शायद ही कोई कर पाए क्योंकि उनके पास जानकारी थी. जिसके लिए वे काफी पढ़ा करते थे. बनारस जाते थे तो बहुत सारी किताबें खरीद लाया करते थे. गूगल के पहले के दौर में कमाल ख़ान जब रिपोर्टिंग करने निकलते थे तब उस मुद्दे से जुड़ी किताबें लेकर निकलते थे. 

अब कोई दूसरा कमाल ख़ान नहीं होगा. क्योंकि जिस प्रक्रिया से गुज़र कर कोई कमाल ख़ान बनता है उसे दोहराने की नैतिक शक्ति यह देश खो चुका है. इसकी मिट्टी में अब इतने कमज़ोर लोग हैं कि उनकी रीढ़ में दम नहीं होगा कि अपने-अपने संस्थानों में कमाल ख़ान पैदा कर दें. वर्ना जिस कमाल ख़ान की भाषा पर हर दूसरे चैनल में दाद दी जाती है उन चैनलों में कोई कमाल ख़ान ज़रूर होता. कमाल ख़ान एनडीटीवी के चांद थे. जिनकी बातों में तारों की झिलमिलाहट थी. चांदनी का सुकून था.

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