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हाथरस गैंगरेप आरोपियों के परिवार का घमंड, कहा- हम इनके साथ बैठना-बोलना भी पसंद नहीं करते, हमारे बच्चे इनकी बेटी को छुएंगे क्या?

दिल्ली से बमुश्किल 160 किलोमीटर दूर हाथरस गैंगरेप पीड़ित का गांव बूलगढ़ी। ‘यहां के लोग मरना पसंद करेंगे, गैर बिरादरी में उठना-बैठना नहीं।’

वो ठाकुर था। लेकिन, गैंगरेप की घटना पर उसे गहरा अफसोस था। वो कहने लगा, उस दलित बच्ची के साथ बहुत गलत हुआ। दिल्ली में भी जब सफदरजंग अस्पताल में मैं पीड़ित के परिजन से बात कर रही थी तब उसके भाई और पिता बार-बार जाति का जिक्र कर रहे थे। तब मन में ये सवाल आ रहा था कि क्या अभी भी हमारी वाली दुनिया में इतना गहरा जातिवाद है? गिरफ्तार आरोपियों के परिवार के लोगों से मिली तो बड़े रुबाब से कहते मिले, ‘हम इनके साथ बैठना-बोलना तक पसंद नहीं करते, हमारे बच्चे इनकी बेटी को छुएंगे?’

इस ठाकुर और ब्राह्मण आबादी गांव में दलितों के गिने-चुने घर हैं और उनकी दुनिया अलग है। यहां जातिवाद की जड़ें बेहद भीतर तक धंसी हुई हैं। लोग बात-बात में जाति की बात करते हैं। बावजूद इसके तथाकथित उच्च जाति के लोगों का यही कहना था कि ये दलित परिवार बहुत सज्जन है, किसी से कोई मतलब या बैर नहीं रखता। गांव की एक ठाकुर महिला कहती हैं, ‘इस परिवार के लोग बुजुर्ग ठाकुरों को देखकर अपनी साइकिल से उतर जाते हैं और पैदल चलते हैं ताकि किसी ठाकुर को ये ना लगे कि उनके सामने ये लोग साइकिल से चल रहे हैं, उनकी बराबरी कर रहे हैं।’

यहां जातिवाद इतना गहरा है कि ब्राह्मण और ठाकुर पड़ोसियों ने पीड़ित परिवार का हालचाल तक नहीं पूछा, उनके घर शोक जताने जाना तो दूर की बात है। जब पीड़ित के भाई से पूछा कि क्या इस घटना के बाद उन्हें गांव के लोगों का साथ मिला है तो बोले, ‘किसी ने हाल तक तो पूछा नहीं, साथ की बात दूर की है। यहां हमसे ही कौन बात करता है?’

पीड़ित की भाभी बदहवास हैं। वो रोते हुए बार-बार यही कहती हैं, ‘हमारी बेटी का आखिरी बार मुंह तक नहीं देखने दिया। अब तक हमें लग रहा था कि इंसाफ होगा, लेकिन रात में पुलिस ने जो किया उससे सरकार और पुलिस से भरोसा उठ गया है। वो कहती हैं, ‘कोई इतना अमानवीय कैसे हो सकता है कि किसी को उसकी बेटी का चेहरा तक न देखने दे। वो चौबीस घंटे मेरे साथ रहती थी, उसका चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम रहा है।’

‘अस्पताल में उससे बात हुई थी तो वो बस यही कह रही थी किसी तरह मुझे घर ले चलो, मैं घर पर ठीक हो जाऊंगी, यहां मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। वो जीना चाहती थी। हम तो समझ नहीं पा रहे हैं कि दिल्ली के अस्पताल में क्या हुआ कि उसकी जान चली गई। हमें उम्मीद थी कि वो ठीक होकर घर लौट आएगी। दीदी को इलाज अच्छा नहीं मिला।’

पूछने पर कि क्या कभी उसने मुख्य आरोपी संदीप के बारे में कोई शिकायत की थी या कभी उससे कोई बात हुई थी, वो कहती हैं, ‘उसने कभी भी संदीप से किसी तरह की कोई बात नहीं की। शुरू में पुलिसवाले पूछ रहे थे कि क्या उसका नंबर हमारे मोबाइल में है। लेकिन जिससे हमें कोई बात नहीं करनी, जिससे हमारा कोई मतलब नहीं है, हमारे मोबाइल में उसका नंबर क्या करेगा? क्या हम ऐसे लोग लगते हैं कि बाहर के लोगों से संपर्क रखें? वो तो हमारी जाति का भी नहीं था। दूसरी जाति के लोगों को हम जानते तक नहीं है। हमारे घर की औरतें बस अपने काम से मतलब रखती हैं, बाहर कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, उस ताकाझांकी से हमें कोई मतलब नहीं है। हमारे पूरे घर में एक ही फोन है वो भी पापा या भैया के पास ही रहता था।’

वो कहती हैं, ‘दीदी कभी-कभी परेशान तो लगती थीं, लेकिन उन्होंने अपने मुंह से कभी ये नहीं कहा कि उन्हें क्या परेशानी थी। वो सुबह चार बजे से उठकर शाम तक घर के काम में लगी रहती थीं। वो थोड़ी सहमी-सहमी रहती थीं लेकिन कभी इस बारे में कुछ बोला नहीं। हम तो यही समझते थे कि शायद पूरा दिन काम करने की थकान की वजह से उनका चेहरा ऐसे हो जाता है। होगी कोई बात जो उन्होंने हमें नहीं बताई होगी।’

मीडिया के कैमरों से किसी तरह नजर बचाकर पीड़ित की मां रसोई के बिखरे बर्तन समेटने की कोशिश करती हैं। उनकी आंखें रो-रो कर लाल हो गई हैं। गला बैठ गया है। वो कई दिनों से सो नहीं पाई हैं। कहती हैं, जब तक बेटी थी रसोई में कदम नहीं रखा, एक तिनका तक नहीं छूने देती थी। ये कहते-कहते उनके शब्द सिसकियों में बदल जाते हैं, आंसू बोलने लगते हैं। जिस बेटी को अपने घर से बाहर की दुनिया से कोई मतलब नहीं था उसकी दर्दनाक मौत ने परिवार को तोड़ दिया है।

पीड़ित के परिवार और दलितों को डर है कि एक बार मीडिया के कैमरे यहां से चले जाएंगे तो उन्हें दिक्कतें होने लगेंगी। यहां दलितों के पास जमीन नहीं है और लोगों को तथाकथित उच्च जाति के लोगों के खेतों में ही काम करना पड़ता है। पशुओं के लिए घास काटने भी उन्हीं के खेतों में जाना पड़ता है।

मंगलवार की रात को पुलिस ने जो रवैया अपनाया, जिस तरह पीड़ित के परिवार को जबरदस्ती घर में बंद कर अंतिम संस्कार किया उसके बाद उनमें असुरक्षा और बढ़ गई है। पीड़ित परिवार की सुरक्षा के सवाल पर पुलिस अधीक्षक विक्रांत वीर यही कहते हैं कि उन्हें सुरक्षा मुहैया करा दी गई है, पुलिस की तैनाती आगे भी बनी रहेगी। लेकिन इस बंटे हुए समाज में पुलिस कब तक सुरक्षा दे पाएगी, ये सवाल रह जाता है।

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