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Telangana विधानसभा का चुनाव KCR, Congress, BJP और Owaisi के लिए इस बार क्यों रहा अलग और ख़ास

Why was Telangana Assembly elections different and special this time for KCR Congress BJP and Owaisi

Why was Telangana Assembly elections different and special this time for KCR Congress BJP and Owaisi

किसी भी चुनाव में जनकल्याण या विकास का मुद्दा ही मुख्य एजेंडे के रूप में उभरता है. अक्सर इस बात को लेकर भी पशोपेश रहती है कि कल्याणवाद और प्रगतिशील विकास में से किस पर ज़्यादा फ़ोकस होना चाहिए.

मगर विडंबना यह है कि इस साल एक व्यक्ति, उनका परिवार और उनके काम करने का तरीक़ा, 2014 में बने भारत के 29वें और सबसे युवा राज्य तेलंगाना का इकलौता चुनावी मुद्दा बन गया.

तेलंगाना का एक और अजीब पहलू यह है कि यहां पिछले कुछ सालों में बीजेपी जो वोट बैंक बनाने में सफल रही थी, अब वह कमज़ोर हुआ है. कमल के बजाय अब कांग्रेस मज़बूत हो गई है.

के. तारक रामा राव, जिन्हें ‘केटीआर’ भी कहा जाता है ताकि उनके नाम की ध्वनि उनके मुख्यमंत्री पिता ‘केसीआर’ के नाम से मेल खाए, ने हाल में जब भी राष्ट्रीय चैनलों से बात की, वह विकास के सूचकांकों का ज़िक्र करते और आंकड़ों का हवाला देते नज़र आए.

ये आंकड़े कुछ क्षेत्रों में हुई प्रगति को दर्शाते हैं, लेकिन उन्होंने मानव विकास के संकेतकों और साक्षरता दर का ज़िक्र नहीं किया. भले ही तेलंगाना ने आर्थिक रूप से प्रगति की है, लेकिन मानव विकास के मामले में इसका रिकॉर्ड ख़राब है.

तेलंगाना ने बिजली, सिंचाई, पेयजल और प्रति व्यक्ति आय के मामले में प्रगति की है. ताज़ा सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, राज्य 3.08 लाख रुपये प्रति व्यक्ति आय के साथ देश में सबसे ऊपर है. राज्य की प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने में ‘ग्रोथ मशीन सिटी’ हैदराबाद का बड़ा योगदान है.

इसके अलावा, देश की बिजली की औसत खपत में भी तेलंगाना सबसे आगे है. इसे आधुनिक विकास का एक प्रमुख संकेतक माना जाता है. राज्य का स्कोर, घरों में पीने का पानी उपलब्ध करवाने और नए क्षेत्रों में सिंचाई का पानी पहुंचाने के मामले में भी काफ़ी ऊंचा है.

साल 2014 में राज्य में अनाज का उत्पादन 68 लाख टन था, जो 2022 तक बढ़कर 3.5 करोड़ टन हो गया. केंद्र के अनुमान के मुताबिक़, पिछले खरीफ सीज़न में अनाज खरीद के मामले में तेलंगाना, पंजाब के बाद दूसरे नंबर पर रहा.

साल 2014 में राज्य में अनाज का उत्पादन 68 लाख टन था, जो 2022 तक बढ़कर 3.5 करोड़ टन हो गया. केंद्र के अनुमान के मुताबिक़, पिछले खरीफ सीज़न में अनाज खरीद के मामले में तेलंगाना, पंजाब के बाद दूसरे नंबर पर रहा.

इन लोकप्रिय कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के बावजूद, सत्ताधारी भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) इस चुनाव में रक्षात्मक स्थिति में नज़र आई. उसे कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिलती दिखाई दी

क्यों बैकफ़ुट पर है बीआरएस?

पहली बात जो स्पष्ट है, वह यह कि बीआरएस को मतदाताओं की दीर्घकालिक थकान की मार झेलनी पड़नी रही है. बहुत से मतदाता कुछ नया चाहते हैं. दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात है केसीआर और उनके परिवार का रवैया.

विपक्षी दलों ने इसे अपने प्रचार अभियान के दौरान भुनाया भी. उन्होंने इसे केसीआर के परिवार के शासन के अहंकारी रवैये के रूप में प्रचारित किया. तीसरा कारण है- बेरोज़गारी के कारण युवाओं के कुछ वर्गों में बीआरएस से निराशा.

तेलंगाना आंदोलन के दौरान पानी, फ़ंड और सरकारी नौकरियों (नई नियुक्तियों) को राज्य के विकास के मंत्र के रूप में प्रचारित किया गया था. जिस बात को लेकर सबसे ज़्यादा आलोचना हो रही है, वह यह है कि बीआरएस ने रोज़गार यानी नौकरी के अवसर पैदा करने पर बहुत कम ध्यान दिया.

पिछले 10 सालों में ग्रुप वन (राज्य सिविल सेवा के) में एक भी नौकरी सृजित नहीं हुई है, लेकिन राज्य में जिलों की संख्या जो साल 2014 में 10 थी, अब बढ़कर 33 हो गई है. राज्य के ज़्यादातर विश्वविद्यालय कुल कर्मचारियों के मात्र एक तिहाई के साथ काम कर रहे हैं.

बारेलक्का (भैंस वाली बहन) – अशांति की प्रतीक

कोल्लापुर की एक निर्दलीय उम्मीदवार सिरीशा, 25 साल की ग़रीब और बेरोज़गार महिला हैं. उन्हें बारेलक्का (भैंस वाली बहन) के नाम से जाना जाता है. वह तेलंगाना में अशांति का प्रतीक बन गई हैं.

उन्हें पूरे दक्षिण भारत से बहुत समर्थन मिल रहा है और वह बेरोज़गारी और सरकार की कथित मनमानी के मुद्दे का प्रतीक बनकर उभरी हैं. ये दोनों ही मसले वो हैं, जिनका बीआरएस को सामना करना पड़ा है.

सिरीशा ने हैदराबाद में रहते हुए सरकारी नौकरियों के लिए पढ़ाई की, लेकिन लंबे समय तक भर्तियां स्थगित रहने के कारण वह परेशान हो गईं. इसके बाद वह अपने गांव लौट गईं और वहां भैंसें पालना शुरू कर दिया.

अपनी इस कहानी को लेकर उनकी एक सोशल मीडिया पोस्ट वायरल हो गई और सरकार ने उनके ख़िलाफ़ ‘सरकार को बदनाम करने’ के नाम पर मामले दर्ज कर लिए.

इस चुनाव में वह स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में लड़ रही हैं. उन्हें दोनों तेलुगू राज्यों (आंध्र और तेलंगाना) के उदारवादी वर्गों के साथ-साथ कांचा इलैया, जे.डी. लक्ष्मीनारायण जैसी जानी-मानी हस्तियों और यहां तक कि पुडुचेरी के विधायकों का भी समर्थन मिल रहा है.

जिस निर्वाचन क्षेत्र से वह चुनाव लड़ रही हैं, वहां उनके समर्थन में अलग-अलग जगहों से आने वालों का तांता लगा रहा.

कांग्रेस ने भुनाई बीजेपी की कमज़ोरी

राज्य में राजनीतिक हालात ऐसे हैं कि जो मतदाता कभी बीजेपी की ओर झुक गए थे, अब उन्होंने कांग्रेस का रुख़ कर लिया है. जिस समय बंडी संजय बीजेपी के प्रदेशाध्यक्ष थे, तब बीजेपी हैदराबाद नगर निगम जीतने की दहलीज़ पर थी. उसने दुब्बाका और हुज़ूराबाद विधानसभा क्षेत्रों में हुए महत्वपूर्ण उपचुनाव में भी जीत हासिल की थी.

केसीआर और उनके परिजनों के ख़िलाफ़ बंडी संजय बहुत ही आक्रामक ढंग से बोलते थे. लेकिन जब किशन रेड्डी ने प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर उनकी जगह ली तो राज्य में एक नई कहानी का आग़ाज़ हुआ.

केसीआर की बेटी और दिल्ली के कथित शराब घोटाले के अभियुक्तों में से एक, कल्वाकुंतला कविता के ख़िलाफ़ केंद्रीय एजेंसियों की जांच धीमी हो गई है, जिससे एक नई कहानी (नैरेटिव) उभरकर सामने आई है.

कांग्रेस ने बार-बार आरोप लगाया कि बीआरएस और बीजेपी के बीच मिलीभगत है. यह संदेश राज्य की जनता के बीच तेज़ी से और बड़े स्तर पर फैल गया, जिससे बीजेपी की मज़बूती कम हो गई.

भारतीय जनता पार्टी ने आबादी के प्रबुद्ध वर्गों के लिए बंगाल के विवेकानंद और आक्रामक वर्गों के लिए पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के शिवाजी जैसे हिंदू प्रतीकों का ज़िक्र करके असंतुष्ट युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश की, मगर इसका बहुत कम असर हुआ.

भाजपा का समर्थन करने वाले ज़्यादातर युवा वैचारिक रूप से इस पार्टी की ओर झुकाव नहीं रखते थे. दरअसल वे बीआरएस या केसीआर विरोधी थे.

कुछ लोग केसीआर और उनके परिवार के शासन से बहुत ज़्यादा नाराज़ हैं. यही कारण है कि वे हर उस व्यक्ति का रुख़ कर रहे थे, जो आक्रामक रूप से केसीआर पर हमला कर रहा था.

और यही कारण रहा कि जब यह स्पष्ट हो गया कि बीआरएस के लिए मुख्य चुनौती बीजेपी नहीं है, तो लोगों को रेवंत रेड्डी के रूप में एक और नेता दिखा जो बंडी संजय की तरह आक्रामक ढंग से बोल रहा था. तब से, लोगों ने दूसरी दिशा में चलना शुरू कर दिया और वह दिशा थी- कांग्रेस की ओर.

मुखर वामपंथी और उदारवादी आवाज़ें

जब बीजेपी से मुख्य चुनौती मिल रही थी, तब तेलंगाना की ज़्यादातर मुखर आवाज़ें अनमने ढंग से बीआरएस के साथ थीं. वामपंथी और उदारवादी तबकों ने बीजेपी को लेकर अपने वैचारिक विरोध के कारण ऐसा रवैया अपनाया होगा.

तेलंगाना में भले ही कम्युनिस्ट पार्टियां कमज़ोर हो गई हों, लेकिन वामपंथी झुकाव रखने वाले वे वर्ग अभी भी मुखर हैं, जिनका पार्टियों से नाता नहीं है. वामपंथी और उदारवादी तबकों की इन मुखर आवाजों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस की ओर मुड़ गया है.

उनके विचार कांग्रेस के लिए वैसे नहीं है, जैसे बीजेपी के लिए हैं. ये आवाज़ें काफ़ी प्रभाव रखती हैं और सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में धारणाएं और नैरेटिव गढ़ने में अहम भूमिका निभाती हैं.

बीआरएस पार्टी में केसीआर के बाद केटीआर की बड़ी अहमियत है. पर्यवेक्षक कहते हैं कि केसीआर उस समय का इंतज़ार कर रहे हैं, जब वह राष्ट्रीय राजनीति में जा सकते हैं और सीएम की कुर्सी अपने बेटे को सौंप सकते हैं.

परिवार का राज और भ्रष्टाचार

परिवार के शासन की इस सूची में बेटे के बाद अगला नंबर केसीआर के दामाद हरीश राव का है. एक समय था, जब वह पार्टी में केसीआर के बाद एक शानदार छवि वाले नेता थे. लेकिन पिछले कुछ समय से केटीआर उनकी जगह लेते जा रहे हैं.

वहीं, केसीआर की बेटी कल्वाकुंतला कविता भी तेलंगाना में परिवार के इस ‘पावर प्ले’ में मौजूदगी रखती हैं. इसके बाद केसीआर के एक और दामाद संतोष का नंबर आता है, जो राज्यसभा के सदस्य भी हैं.

इस तरह, पार्टी में इस बात को लेकर कड़ी आलोचना होती है कि सबकुछ परिवार के पास है. इसके अलावा, केसीआर के बोलने के तरीक़े का भी विरोध होता है, जो कई लोगों को रास नहीं आता.

यहां तक कि विधायकों को भी कई दिनों तक मुलाक़ात का समय नहीं मिलता, जिससे ऐसी आलोचनाओं को भी बल मिला है कि केसीआर सचिवालय न जाकर अपने फ़ार्म हाउस में बहुत ज़्यादा समय बिताते हैं.

इस सबके अलावा, राज्य में बड़ी परियोजनाओं के ठेके एक या दो कंपनियों को दिए जाते हैं और जिस तरह से इन ठेकों को तैयार किया जाता है, उससे भी भ्रष्टाचार के आरोपों को हवा मिली है.

आधुनिक ‘राजा’

प्रतिष्ठित और विशाल ‘कालेश्वरम परियोजना’ की चर्चा भी अक्सर बड़े भ्रष्टाचार के कारण की जाती है.

केसीआर के काम करने का तरीक़ा बाक़ी लोकतांत्रिक ढंग से चुने जाने वाले शासकों से अलग है. तेलंगाना में हर निर्णय इस आधुनिक लोकतांत्रिक शासक ने लिया और किसी राजशाही की तरह, विकास की हर गतिविधि उनके चारों ओर घूमती है.

आंध्र प्रदेश में तिरुपति की बराबरी करने के लिए उन्होंने 1000 करोड़ रुपये खर्च करके यादाद्री मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया. वह एक ऐसे नेता हैं, जिन्होंने ‘राज्य के गठन के लिए आशीर्वाद’ के बदले तिरुपति में भगवान बालाजी और विजयवाड़ा में देवी दुर्गा को उपहार के रूप में गहने दिए, वह भी तेलंगाना के सरकारी ख़ज़ाने से.

वह एक ऐसे शासक हैं, जिन्होंने तब तक पुराने सचिवालय में एक दिन भी क़दम नहीं रखा, जब तक कि नए सचिवालय का निर्माण नहीं हो गया.

नया सचिवालय भी वास्तु सलाहकारों की सलाह लेकर बनाया गया था. पुराने सचिवालय को ढहा दिया गया है और इसके बगल में एक नया और आकर्षक सचिवालय बनाया गया है, जिसमें आंबेडकर की 125 फ़ुट की प्रतिमा लगाई गई है.

लेकिन इस नए सचिवालय में सीएम ने कितने घंटे बिताए हैं, इसे लेकर भी कई सवाल हैं. विरोधियों ने उन्हें ‘फ़ार्म हाउस सीएम’ के रूप में प्रचारित किया था, क्योंकि उन्होंने अपना ज़्यादातर समय अपने फ़ार्म हाउस में ही बिताया था.

मंत्रिमंडल के पहले चरण (2014-2018) के दौरान वह ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिनके मंत्रिमंडल में एक भी महिला नहीं थी. वह पुराने दौर के एक ऐसे ‘धर्मपालक’ थे, जिन्होंने जाति के आधार पर भवन, योजनाएं और गुरुकुल बनवाए.

कुल मिलाकर, बीआरएस अब लोगों में भड़की उस निराशा और आक्रोश का सामना कर रही है, जिसके लिए उसकी राजनीति और नीतियां ज़िम्मेदार हैं. तेलंगाना में, ये निराशा और आक्रोश एक ही आदमी और उनके परिवार के इर्द-गिर्द घूमते हैं और वह हैं- केसीआर.

हालांकि, बीआरएस को उम्मीद है कि कालेश्वरम परियोजना, पानी और मुफ्त बिजली से उन्हें तीसरे कार्यकाल के लिए सत्ता में लौटने में मदद मिल सकती है. लेकिन कांग्रेस और बीजेपी ने परिवारवाद, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी को लेकर केसीआर और बीआरएस की बहुत आलोचना की है.

एआईएमआईएम का साथ

119 विधायकों वाली तेलंगाना विधानसभा में 60 सीटों पर जीत हासिल करने पर बहुमत मिल जाता है. साल 2018 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में बीआरएस (तब टीआरएस) ने 46.8 प्रतिशत वोट लेकर 88 सीटों पर जीत हासिल की थी. तब कांग्रेस 28.4 प्रतिशत वोटों लेकर सिर्फ़ 19 सीटें जीत पाई थी.

अब बीआरएस को हराने के लिए कांग्रेस को ऊंची कूद लगानी होगी, लेकिन जब लोग अपना मूड बदलते हैं, तो कुछ भी हो सकता है. कांग्रेस ने चुनावों में जो नैरेटिव बनाया है, वह काफ़ी ज़्यादा उभरा है. हालांकि, यहां एक छोटा सा ट्विस्ट भी है.

एक अनुमान यह भी लगाया जा रहा है कि केसीआर के पास चुनाव से पहले ही छह से सात सीटें हैं. यह दावा एआईएमआईएम के कारण किया जा रहा है.

यह पार्टी हैदारबाद के पुराने शहर में छह से सात सीटें जीतती रही है. एआईएमआईएम को बीआरएस का सहयोगी माना जाता है, हालांकि वे आधिकारिक तौर पर साथ नहीं हैं.

यही कारण है कि एक अनुमान यह भी लगाया जा रहा है कि अगर कांग्रेस और बीआरएस के बीच कड़ा मुक़ाबला हुआ और खंडित जनादेश आया तो ये छह-सात सीटें महत्वपूर्ण हो सकती हैं.

ऐसे में- कुछ भी हो सकता है. लेकिन इतना तो तय है कि तेलंगाना में आगे भी दिलचस्प चुनावी लड़ाइयां होने वाली हैं.

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