किसी पुराण में लिखा है कि सुमेरु पर्वत से चार नदियां, चार दिशाओं में निकलती हैं. आप अगर नक्शा देखें तो बात कुछ स्पष्ट होगी. बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच में, लगभग सात हजार मीटर ऊंचे चार खंभों की वजह से ही शायद इस स्थान को बद्रीनाथ-चौखम्बा नाम दिया गया है.
चौखम्बा के क्रोड गंगोत्री से गंगा निकलती है जो लगभग उत्तर-पश्चिम दिशा में पचीस किलोमीटर यात्रा कर गोमुख में भागीरथी को जन्म देती है. चौखम्बा के उत्तर-पूर्व में सतोपन्थ बांक और भागीरथी हिमनद हैं जो अलकनन्दा को जन्म देते हैं. चौखम्बा के पंद्रह किलोमीटर पश्चिम में सुमेरु पर्वत है जिसके क्रोड में से निकले हिमनद से मंदाकिनी का जन्म होता है.
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सुमेरु पर्वत के लगभग उत्तर-पश्चिम में यमुनोत्री है. अब पता नहीं पुराणों में जो चार नदियों के चार दिशाओं में निकलने की बात है वह इसी सुमेरु से इन चार नदियों की बात है या उसका अर्थ सिंधु, ब्रह्मपुत्र, गंगा और सतलज से है. गोमुख हिमनद गंगा के जल का मुख्य स्रोत है. गंगोत्री से अठारह किलोमीटर ऊपर हिमालय में स्थित. यह हिमालय की सबसे बड़ी हिमनदों में से है, लगभग 27 घन किलोमीटर बड़ा. कुछ अध्ययन बताते हैं कि इसकी गहराई लगभग 200 मीटर है.
वैज्ञानिक कहते हैं कि ग्लेशियर तब बनते हैं जब लंबे समय तक हिम की परतें एक के ऊपर एक जमा हो जाती हैं. हिम की यह परतें कई सौ फुट मोटी हिमनदों का रूप ले लेती हैं. गंगोत्री हिमनद भी ऐसे ही बना होगा. हजारों वर्षों का इतिहास समेटे. मगर यहां लोगों के लिए यह सब सिर्फ किताबी बातें हैं.
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जिस गुफा से यह हिमनद निकलता वह है गोमुख. गोमुख यानी गाय का मुख. जिस गुफा से गंगा नदी निकलती है वह कभी बिलकुल ऐसा ही था. गंगोत्री से गोमुख तक की यात्रा आसान नहीं है. अगर आप उसी दिन वापस आना चाहते हैं तो कंपकपाती सर्दी में तड़के चार बजे निकलना पड़ेगा. यूं आप चाहें तो भोजबासा में रात्रि विश्राम भी कर सकते हैं. भोजपत्र के पेड़ों की अधिकता के कारण ही इस स्थान का नाम भोजवासा पड़ा था, लेकिन अब तो इस जगह भोज वृक्ष गिनती के ही बचे हैं.
गंगोत्री से ही आक्सीजन की कमी महसूस होने लगती है. गोमुख को समझने की कोशिश कई शोधकर्ता सालों से कर रहे हैं. वैज्ञानिक पिछले कई वर्षों से चीख-चीखकर कह रहे हैं कि गोमुख ग्लेशियर पिघल रहा है. पहले से कही ज्यादा तेज गति से. कभी गोमुख क्षेत्र में 26 किमी लंबा और लगभग 3.5 किमी चौड़ा ग्लेशियर था जो अब दो-ढाई किमी पीछे सरक गया है.
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जाहिर है इसके लिए ग्लोबल वॉर्मिंग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, जिसमें परमाफ्रॉस्ट यानी सालों भर बर्फ से जमे रहने वाले इलाके और ग्लेशियर भी पिघलते जा रहे हैं. शोध होना बाकी है कि क्या यह हर हिम युग के बाद आने वाला भौगोलिक भाषा में गर्म दौर का हिस्सा है या अत्यधिक इंसानी गतिविधियों और बढ़ती आबादी ने इस पर अपना बहुचर्चित असर डाला है.
क्या किसी को कभी भरोसा भी होगा कि यहां हिमालय की यह उत्तुंग श्रेणियां, जिनकी ऊंचाई को लेकर कभी-कभी आसमान की कुरसी भी हिल जाती होगी, वह कभी सागर की तलहटी का हिस्सा रहा होगा? हैरतअंगेज है, लेकिन है सच. भूगोल का हर छात्र अपने विषय की बुनियादी पढ़ाई यहीं से शुरू करता है. यह टेथिस सागर था. भूगोल ने इसे साबित किया है क्योंकि हिमालय की चोटियों के पत्थरों में मछलियों के जीवाश्म मिले हैं.
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ग्लेशियर यानी हिमानियां अपना स्वरूप बदलती रहती हैं. कुछ समय से उनके आकार में कमी आई है. जलवायु परिवर्तन के प्रचलित सिद्धांत और मान्यताएं कहती हैं कि ग्रीन हाउस प्रभाव और अन्य ऐसी ही वजहों से वैश्विक तापमान में बढोत्तरी दर्ज की जा रही है, और पहाड़ों का हिमावरण तेजी से घटता जा रहा है.
जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि 1935 से 1976 तक ही गोमुख ग्लेशियर 775 मीटर पीछे सरक गया था. यह पढ़ते हुए मुझे भूगोलवेत्ता ग्रीफिथ टेलर याद आए. विकास और पर्यावरण के द्वन्द्व में मुझे हमेशा ग्रीफिथ टेलर याद आते हैं. उनने विकास के मॉडल्स के बारे में ‘रूको और जाओ’ नीति का पक्ष लेने की बात कही थी. उन्होंने कहा था कि अंधाधुध विकास के कामों को शुरू करने से पहले हमेशा उसकी सततता के बारे में विचार करना चाहिए.
कथित विकास की अंधी दौड़ में हमें टिकाऊ या सतत विकास के बारे में सोचने का मौका ही नहीं मिलता.
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ग्लेशियर हैं तो नदियां हैं, नदियां हैं तो जल, जंगल, और मानव सभ्यता और जीवन है. लेकिन सचाई यही है कि गंगा की बेसिन में क्लास एक शहरों के रूप में वर्गीकृत 36 शहर नदी में जाने वाले अपशिष्ट में 96 फीसदी गंदगी डालते हैं. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक नदी के किनारे बसे शहर रोजाना 2,723 मिलियन लीटर घरेलू सीवेज इस नदी में ही प्रवाहित करते हैं. लेकिन यह महज एक अनुमान है और वास्तविकता इससे कहीं अधिक भयावह हो सकती है, क्योंकि बोर्ड का यह अनुमान शहरों में पानी की सप्लाई की मात्रा को लेकर की गई गणना है.
क्या आपको लगता है कि शहरों में जितना पानी इस्तेमाल होता है उतना पानी निगम वाले वाकई सप्लाई करते हैं? हर शहर में हैंडपंप और कुएं जैसे अलहदा साधन भी होते हैं. सीपीसीबी के पाया कि गंगा में रोजाना 6,000 मिलियन लीटर सीवेज नालों के जरिए गिराया जाता है.
कहने की जरूरत नहीं कि हमारे शहरों में इस सीवेज को उपचारित (ट्रीट) करने की क्षमता बेहद कम है. बेहद कम इसलिए, अगर हम दो तथ्यों पर ध्यान दें. पहली बात, सीवेज पैदा होने और उसके उपचार के बीच का अंतर हर साल 55 फीसदी का है. इसका अर्थ यह भी हुआ कि चाहे हम सीवेज ट्रीटमेंट में और अधिक क्षमता को जोड़ भी लें तो भी आबादी बढ़ोतरी की वजह से यह अंतर तो बना रहेगा.
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आबादी में बढोतरी और सीवेज डिस्चार्ज की वास्तविक मात्रा के अनुमान को साथ रखकर गणना की जाए तो पता चलता है कि हमारी ट्रीटमेंट की क्षमता और सीवेज उत्पादन के बीच का अंतर 80 फीसदी तक बढ़ जाता है.
मैदानी इलाकों में गंगा के मुख्य धारा और इसकी दो सहायक नदियों राम गंगा और काली नदी के साथ कम से कम 764 औद्योगिक इकाईयां हैं जो नदी में 500 एमएलडी जहरीला अपशिष्ट उड़ेलती हैं.
गंगा के साथ दिक्कत यह है कि इसके किनारे अधिकतर शहरों में भूमिगत सीवेज सिस्टम भी नहीं है. खासकर प्रयागराज और वाराणसी जैसे शहरों को 80 फीसदी हिस्सा अभी भी सीवर की कवरेज में नही है. इन शहरों में अपशिष्ट तो पैदा हो रहा है लेकिन वह ट्रीटमेंट प्लांट तक नहीं पहुंचता.
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नदियों को देवी के रूप में पूजने वाले देश में गोमुख के पास खड़े होकर यह सोचना कितनी पीड़ा की बात है कि यहां ग्लेशियर दिन ब दिन पीछे खिसक रहा है, वहां मैदानों में हम अपने घरों और उद्योगों का पूरा कूड़ा नदी में प्रवाहित कर रहे हैं.
नदी ही नहीं बची, तो देवी मान कर जिस गंगा की पूजा हम करते हैं, उसका क्या होगा?
मंजीत ठाकुर