जब ताले में थे प्रभु राम, जानिए कैसे होती थी तब अयोध्या में पूजा-अर्चना

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद यूं तो काफी पुराना है लेकिन जिस भूमि विवाद पर जल्द ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना है. उस विवाद की शुरुआत 1949 में हुई थी जब 22/23 दिसंबर 1949 की रात मस्जिद के भीतरी हिस्से में रामलला की मूर्तियां रखी गईं. इस घटना के बाद अयोध्या का पूरा परिदृश्य ही बदल गया और वहां पूजा की पुरानी व्यवस्था भी समाप्त हो गई.

मुख्य गुंबद के नीचे रखी गई थी मूर्ति

मर्यादा पुरुषोत्तम के बाल रूप की मूर्ति बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के ठीक नीचे वाले कमरे में रखी गई थी. बाबरी मस्जिद को लेकर यह कहानी आम थी कि इसे भगवान राम के प्राचीन मंदिर को तोड़कर बनाया गया था. रख-रखाव के अभाव में खंडहर में तब्दील होती जा रही वह मस्जिद उन दिनों सिर्फ शुक्रवार को जुमे की नमाज के लिए खुलती थी. बाकी दिन उस ओर इक्का-दुक्का लोगों का ही आना-जाना होता था. इसकी वजह थी कि 1934 के दंगों के बाद मुसलमानों ने डर के मारे वहां जाना छोड़ दिया था.

पहले राम चबूतरा पर होती थी रामलला की पूजा

बाबरी मस्जिद की दीवार के बाहरी हिस्से में 21 फुट गुना 17 फुट का एक चबूतरा था, जिसे राम चबूतरा के नाम से जाना जाता था . वहां राम के बाल स्वरूप की एक मूर्ति विराजमान थी. रामलला के दर्शन के लिए तब उतने ही लोग जुटते थे जितने अयोध्या के किसी भी दूसरे मंदिर, मठ या आश्रम में जुटते थे. लेकिन रामलला के प्राकट्य ने सब कुछ बदल दिया.

रामलला चबूतरा वाली मूर्ति ही पहुंची थी मस्जिद के अंदर

23 दिसंबर 1949 की सुबह बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के ठीक नीचे वाले कमरे में वही मूर्ति प्रकट हुई थी, जो कई दशकों या सदियों से राम चबूतरे पर विराजमान थी और जिनके लिए वहीं की सीता रसोई या कौशल्या रसोई में भोग बनता था. राम चबूतरा और सीता रसोई निर्मोही अखाड़ा के नियंत्रण में थे और उसी अखाड़े के साधु-संन्यासी वहां पूजा-पाठ आदि विधान करते थे

ताले के भीतर यूं होती रही भगवान राम की पूजा

23 दिसंबर को पुलिस ने मस्जिद में मूर्तियां रखने का मुकदमा दर्ज किया था , जिसके आधार पर 29 दिसंबर 1949 को मस्जिद कुर्क कर उस पर ताला लगा दिया गया था. कोर्ट ने तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रिय दत्त राम को इमारत का रिसीवर नियुक्त किया था और उन्हें ही मूर्तियों की पूजा आदि की जिम्मेदारी दे दी थी. रामलला का भोजन राम चबूतरे की रसोई में बनाया जाता था. इसके बाद भोग लगाने के लिए संतरी विवादित इमारत का ताला खोल देता था. 1971 में रिसीवर प्रिय दत्त राम की मृत्यु हो गई. इसके बाद नए रिसीवर और निर्मोही अखाड़े के बीच विवाद खड़ा हो गया. मामला अदालत में था और इस दौरान इस पर पुलिस ने दखल दिया और ताला लगाकर चाबी अपने पास रख ली. मौके पर तैनात संतरी बदल गया और चाबी नए संतरी को सौंप दी गई. वहां दो दरवाजे थे. एक दरवाजा भोग लगाने और प्रार्थनाओं के लिए हमेशा खुला रहता था. लंबे समय तक यही व्यवस्था चलती रही.

इस एफआईआर में है उस रात की पूरी घटना का जिक्र

पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने अपनी किताब ‘अयोध्याः 6 दिसंबर 1992’ में उस एफआईआर का ब्यौरा दिया है , जो 23 दिसंबर 1949 की सुबह लिखी गई थी. एस.एच.ओ. रामदेव दुबे ने भारतीय दंड संहिता की धारा 147/448/295 के तहत एफआईआर दर्ज की थी. उसमें घटना का जिक्र करते हुए लिखा गया था, “रात में 50-60 लोग ताला तोड़कर और दीवार फांदकर मस्जिद में घुस गए और वहां उन्होंने श्री रामचंद्रजी की मूर्ति की स्थापना की. उन्होंने दीवार पर अंदर और बाहर गेरू और पीले रंग से ‘सीताराम’ आदि भी लिखा. उस समय ड्यूटी पर तैनात कांस्टेबल ने उन्हें ऐसा करने से मना किया लेकिन उन्होंने उसकी बात नहीं सुनी. वहां तैनात पीएसी को भी बुलाया गया, लेकिन उस समय तक वे मंदिर में प्रवेश कर चुके थे.”

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