कभी कभी ज़िन्दगी में ऐसा समय भी आता है की समझ नहीं आता के बहुत अच्छा होना बुरा है या बुरा होना अच्छा है |
अक्सर लोग एक सवाल करते हुए दिख जाते हैं – “अच्छे लोगों के साथ बुरा क्यों होता है?”….. दूसरे शब्दों में कहें तो यह यही हुआ कि अच्छे लोग दुखी क्यों रहते हैं। हालांकि यह कहते हुए शब्दों में चिंता से अधिक दया भाव होते हैं, जो संभवत: अच्छे लोगों के लिए दुखी रहना एक प्रकार से तय परिस्थिति मान ली जाती है। पर क्या यही सत्य है? क्या इसे मानकर अच्छाई से किनारा कर लिया जाना चहिए? या ऐसे लोगों को एक अलग मानव की कैटगरी में रखना चाहिए? तथ्यों का सूक्षता से निरीक्षण करें तो परिदृश्य कुछ और भी रूप दिखाते हैं।
सबसे पहले तो यह कि ‘अच्छे लोग’ किसे कहा जाना चाहिए? या यह कि अच्छे लोगों की श्रेणी में कौन-कौन आ सकते हैं? मानवीय धरातल पर आकर सोचें तो इस संसार में रहते हुए वास्तव में अच्छे और बुरे की कोई परिभाषा ही नहीं है, वस्तुत: जो है वे हैं परिस्थितिजन्य मानवीय व्यवहार। इन मानवीय व्यवहारों के लिए भी कई कारक जिम्मेदार होते हैं जैसे तत्काल हालात, अपनी सोच, सक्रियता और सक्षमता आदि।
आम तौर पर यह देखा गया है कि जब एक बच्चा दूसरे बच्चे को धक्का देता है, तो वह भी उसे धक्का देता है। इसे कहते हैं, जैसे को तैसा। मगर अफसोस, इस तरह का रवैया सिर्फ बच्चों में ही नहीं, बल्कि कई बड़ों में भी देखने को मिलता है। जब कोई उन्हें ठेस पहुँचाता है, तो वे उससे बदला लेने पर उतारू हो जाते हैं। माना कि वे बच्चों की तरह धक्का नहीं देते, मगर फिर भी वे धूर्त तरीकों से अपना हिसाब बराबर करने की कोशिश ज़रूर करते हैं। जैसे, वे शायद झूठी अफवाहें फैलाकर उसे बदनाम करें, या फिर कोई और तरकीब अपनाकर उसे कामयाब होने से रोकें। तरीका चाहे जो भी हो, उनका इरादा बस एक ही होता है—बदला लेना।
हालाँकि बदला लेने की भावना, एक इंसान के दिल की गहराई में बसी होती है, फिर भी सच्चे मसीही इस भावना को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। इसके बजाय, वे पौलुस की इस सलाह पर चलने की पूरी-पूरी कोशिश करते हैं: “बुराई के बदले किसी से बुराई न करो।” (रोमियों 12:17) इस ऊँचे आदर्श के मुताबिक जीने के लिए क्या बात हमें उकसाएगी? खासकर किन लोगों के साथ हमें बुराई के बदले बुराई नहीं करनी चाहिए? अगर हम बदला लेने की भावना से दूर रहेंगे, तो इससे हमें क्या फायदे पहुँचेंगे? इन सवालों के जवाब पाने के लिए, आइए हम रोमियों 12:17 की आस-पास की आयतों का अध्ययन करें। साथ ही, यह भी देखें कि रोमियों का 12वाँ अध्याय कैसे बताता है कि बदला लेने से दूर रहना सही है, प्यार ज़ाहिर करने का एक तरीका है और अपनी मर्यादा में रहना है। हम इन तीनों पहलुओं पर एक-एक करके गौर करेंगे।
1 दूसरों के लिए जीना / दूसरों की खुशी में खुश होना
दयालु स्वभाव के लोग दूसरों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। इन्हें खुद के लिए कुछ करने से ज्यादा दूसरों के लिए कुछ करने में खुशी मिलती है। यही वजह होती है कि जहां जरूरत पड़ने पर ये हर किसी के काम आते हैं, वहीं इनकी एक खास बात यह होती है कि किसी की मदद करने के लिए ये अपनी जरूरतों को दरकिनार करने से भी पीछे नहीं हटते। पर इनके दुख का कारण यह नहीं होता, बल्कि सामने वाले का स्वार्थी रवैया होता है।वास्तव में देखें तो अपनी सीमाओं से बढ़कर और अपनी परेशानियों को किनारे रखकर किसी की मदद करना ही इनके लिए दुख का कारण बन जाता है। ऐसे व्यक्तियों के लिए लोग यह मानकर चलते हैं कि ये हर वक्त उनके साथ ही होंगे और खुद से पहले उनके बारे में सोचेंगे। उनसे मदद की चाह रखने वाले लोग भले ही इनके लिए कुछ ना करें लेकिन इनसे कभी भी “ना” नहीं सुनना चाहते।एक क्षेत्रीय कहावत है – “करने की सौ शिकायत, ना करने की एक शिकायत”… यही इन दयालु लोगों के साथ भी होता है। जब कभी किसी हालात में पड़कर ये सामने वाले को गलती से भी कुछ करने के लिए “ना” कह दें या परिस्थितिवश मदद ना कर पाएं तो सामने वाले व्यक्ति के मन में यह बात आ जाती है कि अब ये उनके काम नहीं आएंगे। नतीजा यह होता है कि वे उनकी बातों, सोच, निर्णयों को अनदेखा करना शुरु कर देते हैं। यही बात इन्हें दुखी करती है।
आपको यह समझने की जरूरत है कि यह आपका बुरा रवैया नहीं है जिसके लिए आपको दुखी होना चाहिए या पछताना चाहिए, बल्कि यह सामने वाला का स्वार्थ है जो किसी की जरूरतों को समझें बिना हमेशा उसकी मदद लेना चाहता है। इसे समझते हुए आप पछतावे के भाव से निकल जाएं और अपनी प्राथमिकताओं के साथ चलें। बार-बार ऐसा होना आपका दिल दुखाएगा और हो सकता है मदद करने के अपने स्वभाव को ही आप गलत मानने लगें, जबकि ऐसा नहीं है। इसलिए अपने दिल की सुनें, और अपने कड़वे अनुभवों का प्रभाव अपने स्वभाव पर ना आने दें।
2 खुद की परवाह करना स्वार्थी बनना नहीं होता
दयालु लोगों में एक और जो बात होती है वह यह कि ये अपने लिए शायद ही कभी जी पाते हैं। इनकी प्राथमिकताओं में कभी परिवार, कभी रिश्तेदार, तो कभी दोस्त आ जाते हैं। कभी ये बच्चों के स्कूल भागते हैं, कभी परिवार के साथ वीकेंड मनाते हैं, तो कभी दोस्तों के खुशी-गम में शरीक होते हैं, परिणाम यह होता है इनके पास खुद के लिए ही खाली समय नहीं होता कि अपने शौक पूरे कर सकें।क्योंकि इनका हर कदम दूसरों को खुश करने के लिए होता है, उसे पूरा करते हुए ये अपने सपनों को पूरा करने के लिए काम नहीं कर पाते। आपको अपनी इस सोच में थोड़ा सुधार लाने की आवश्यकता है। आपको यह समझने की जरूरत है कि खुद के लिए सोचना स्वार्थी बनना नहीं होता और दूसरों के लिए सोचने का मतलब यह नहीं होता कि आप खुद के लिए बिल्कुल ना सोचें।
नि:स्वार्थ भाव से किसी की मदद करना और बात होती है लेकिन नि:स्वार्थ होने का अर्थ खुद की जरूरतों को भूल जाना नहीं होता। आपको याद रखना चाहिए कि भगवान ने हर इंसान को शरीर और मन दिया है, इसकी जरूरतों और खुशियों का खयाल रखना हर व्यक्तिगत इंसान की जिम्मेदारी होती है। अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करना गलती नहीं हो सकती। हां, स्वार्थी होने और जिम्मेदार होने के बीच का फर्क अवश्य समझ लें। कभी ऐसा नहीं होना चाहिए कि अपना हित साधने के लिए किसी अन्य का बुरा किया जाए या समर्थ होते हुए भी जरूरत में किसी के काम ना आएं तो यह स्वार्थ ही कहलाएगा।
3 उम्मीद करना
तीसरी और एक बहुत जरूरी चीज जो है, वह है ‘उम्मीद रखना’। आपने किसी की मदद इसलिए नहीं की ताकि वह बदले में आपकी भी मदद करे या आपको सम्मान दे या आपके बारे में सोचे। आपका दिल और दिमाग ऐसा करना सही मानता है इसलिए आपने वह किया, फिर अगर बाद में आपके उस काम को पहचान या सम्मान नहीं मिला, तो आपको दुखी नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा है तो यह दिखाता है कि उन कामों के बदले आप भी कोई इच्छा रख रहे हैं और यही इस जगह आपके दुख का कारण बनता है।
आपको यह समझने की जरूरत है कि सक्षम होते हुए किसी के लिए कुछ करना, यहां तक कि अगर आपने अपने विवेक के साथ किसी के लिए कोई त्याग किया तो वह भी आपने अपना नैतिक कर्त्तव्य और इंसानी धर्म पूरा किया है, संभव है भविष्य में अपको इसका पुरस्कार मिले, लेकिन इसके लिए आपको किसी अच्छे परिणाम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। गीता के वह ऊक्ति याद रखें – “कर्म करो, फल की चिंता मत करो।“ यह वह राह है जो हर हाल में आपको दुखी नहीं होने देगा।
well written. Jyoti.
Nice