छल, प्रपंच, मोहरे और बिसात सब कुछ इस बार का के बिहार चुनाव में..

nitish kumar tejaswi modi

सतरहवीं बिहार विधानसभा का संग्राम दिलचस्प पहेली बना रहा है। इस पहेली को बुझाना सबके लिए आसान नहीं है। इस बार लड़ाई आमने-सामने की बजाय असली महाभारत की तर्ज पर लड़ी जा रही है। इसमें छल, प्रपंच, मोहरे और बिसात सब कुछ है। एक मुहावरा है निगाहें कहीं और निशाना कहीं और, यह भी चरितार्थ होता नजर आ रहा है। बिहार के इस बार के सत्ता संग्राम में वाकई किसके साथ कौन है, यह सवाल लोगों को मथ रहा है। नए गठबंधनों का अवतार और गठबंधनों से बगावत भी इसी की कड़ी है।  

बिहार की दो बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां हैं जदयू और राजद। इन दोनों ने न केवल 15- 15 साल तक सरकारों का नेतृत्व किया है, बल्कि दो परस्पर विरोधी गठबंधनों का भी। दोनों के शासनकाल का फर्क न केवल बिहार का आम-अवाम जानता है, बल्कि देश- दुनिया भी इससे वाकिफ है। इस चुनाव में भी दो बड़े गठबंधनों का नेतृत्व इन्हीं दो दलों के पास है। बीते तीन दशक में बिहार की सियासत भी दो ध्रुवीय ही रही। बिहार के सियासी अखाड़े में क्षेत्रीय दलों के जो भी चेहरे-मोहरे आज नजर आ रहे हैं, अतीत में इन्हीं दो ध्रुवों की परिक्रमा करते रहे हैं।  

बिहार में तीन दशक से सामाजिक ध्रुवीकरण के दो केन्द्र
इन तीन दशकों में सामाजिक ध्रुवीकरण के भी यही दो केन्द्र रहे। “माई” की कृपा का डंका पीटने वाले लालू प्रसाद बड़े गर्व से यह भी कहते थे कि मत पेटियों से जिन्न निकलेगा। उनका “जिन्न” मत पेटियों से जबतक निकलता रहा, परचम लहराता रहा लेकिन जब वह जदयू के पाले में जाकर लालू पर तीर दागने लगा तो सियासी महाभारत में लालू मात खा गए। लालू की सियासी जमीन खिसकने लगी। नीतीश कुमार ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग में न केवल लालू के जिन्न (अतिपिछड़ा) को साधा, उसके हित में बड़े फैसले लेकर उनका भरोसा हासिल किया, बल्कि लोहिया की राह चलकर महिला सशक्तीकरण को अपना दूसरा औजार बनाया। महादलित पर मेहरबानी भी सोशल इंजीनियरिंग का तीसरा पहलू रही। इन सबने जदयू के जनाधार को बड़ा विस्तार दिया।  

 नीतीश कुमार अकेले दम पर बिहार की सत्ता पर कभी काबिज नहीं हो सके। 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने आजमाया भी पर सफल नहीं हो सके। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि बीते 15 साल में वह जिस गठबंधन के साथ रहे, उसे ही बहुमत हासिल हुआ। 2015 के विधानसभा के आम चुनाव में नीतीश कुमार एनडीए के खिलाफ महागठबंधन का चेहरा थे। उनके खिलाफ एनडीए में चार दल मसलन भाजपा, लोजपा, हम और रालोसपा शामिल थे। महागठबंधन को करीब तीन चौथाई बहुमत मिला। 2005 के फरवरी और अक्टूबर के चुनावों के नतीजे इस तर्क को और बल देते हैं। फरवरी 2005 में नीतीश कुमार एनडीए का चेहरा नहीं थे, उस समय सत्ता की चॉबी लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान के पास चली गई थी, किसी को बहुमत नहीं मिला। लेकिन अक्टूबर 2005 में एनडीए ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया तो उसे बिहार की सत्ता हासिल हुई। सच तो यह भी है कि कांग्रेस के पराभव के बाद से बिहार में किसी भी दल को अकेले दम पर सत्ता नसीब नहीं हुई। बिहार गठबंधनों की सियासत की धर्मस्थली बना। सियासी क्षत्रपों के बीच “मनभेद” के दौरान हर चुनाव में यहां गठबंधन धर्म पर रोचक शास्त्रार्थ गूंजते रहे हैं।

इस बार चुनाव में चक्रव्यूह का शोर कुछ ज्यादा
इस बार का चुनाव गठबंधनों की तीन दशक पुरानी राह से कुछ ज्यादा ही भटका नजर आ रहा है। “चक्रव्यूह” का शोर कुछ ज्यादा है। इस चक्रव्यूह का अभिमन्यु कौन है? यह पहेली है। कौन रच रहा है, यह भी पहेली है, क्योंकि नेपथ्य से सब हो रहा है। सबसे बड़ा सच है कि दोनों गठबंधनों के नेतृत्व करने वाले दलों को घेरने की कवायद हो रही है। अलग- अलग व्यूह रचना के आईने में इसे देखा जा सकता है। चुनाव करीब आते ही गठबंधनों में दरारें पड़ने लगीं। रास्ते जुदा होने लगे। अपने-अपने गठबंधनों से बाहर आने वालों की शिकायत एक जैसी यानी सिर्फ नेता से रही। नेता पर निशाना साधा और बाहर आ गए। निकलने के बहाने एक जैसे तो लक्ष्य अलग-अलग, लेकिन निचोड़- तीन दशक।  लोजपा के एनडीए से अलग होने, भाजपा के खिलाफ प्रत्याशी न देने और टिकट से वंचित भाजपा के जाने-माने चेहरों को अपना प्रत्याशी बनाने की रणनीति से उपजे भ्रम से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी चिंतित है। देखना है कि भाजपा इस भ्रम को दूर करने की क्या रणनीति बनाती  है।  

बिहार चुनाव को बहुध्रुवीय बनाने की वकायद
इस बार चुनाव को बहुध्रुवीय बनाने के हर संभव प्रयास हो रहे हैं। छोटे दलों ने भी अलग-अलग तीन गठबंधन बनाए हैं 1.  यूनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट 2. ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट 3. पीडीए। ये कितने प्रभावी होंगे, ये तो समय बताएगा। वैसे जोर-शोर और ताम-झाम से पहले के चुनावों में अपनी-अपनी पार्टी लेकर उतरे नेताओं का हश्र अच्छा नहीं रहा है। वोट काटने में भी बहुत कामयाबी नहीं मिली। आनंद मोहन की बीपीपा, पप्पू यादव की जाप समेत बसपा, सपा और तमाम ऐसी पाटिर्यां इसके उदाहरण हैं। बिहार में चुनाव नतीजे भी ज्यादातर दो ध्रुवीय ही रहे हैं। मतदाता पसंद की पार्टी को बड़ा अंतर से बहुमत देने में यकीन करते रहे हैं। छोटे दलों की आपस में गठबंधन कर अखाड़े में उतरने की इस बार की रणनीति का ओर-छोर भी इसी से जुड़ा है। इस तरह अलग-अलग तरीके से हो रही भ्रम की व्यूह रचना मतदाताओं को कितना भरमा पाएगी, यह चुनाव में सामाजिक ध्रुवीकरण पर निर्भर करेगा।

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